फैक्ट्री के आफिस के सामने एक लम्बी सी कार आ कर रुकी और भुवेश बाबू आँखों पर काला चश्मा चढ़ा कर आफिस में अपना काला बैग रख कर वह किसी मीटिग के लिए चले गए, जब वह वापिस आये तो उनके बैग में से किसी ने पचास हजार रूपये निकाल लिए थे। आफिस के सारे कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया, सबकी नजरें सफाई कर्मचारी राजू पर टिक गई क्योकि उसे ही भुवेश बाबू के कमरे से बाहर आते हुए देखा गया था। अपनी निगाहें नीची किये हुए राजू के अपना गुनाह कबूल कर लिया और मान लिया कि वह ही चोर है, पुलिस आई और राजू को पकड़ कर जेल ले गई । पास ही के एक अस्पताल में राजू के बीमार कैंसर से पीड़ित बेटे का ईलाज चल रहा था ।
रेखा जोशी
मौलिक एवं अप्रकाशित रचना
Comment
गणेश भाई की सलाह से लघुकथा की सार्थकता सिद्ध हो रही है ...
शुभ-शुभ,आदरणीय सौरभ जी
आपने समस्या बतायी, हमने सुन ली. सुन ली और उस पर अपनी बातें कह दी. आगे आपकी ही बात है न, आदरणीया? अब हम आपकी नयी रचना की प्रतीक्षा में हैं, बस. आगे इस पर तर्क क्या देना ?
आदरणीया, न यह आपकी पहली रचना है, न आखरी होने वाली है. यह सीखने-समझने की प्रक्रिया तो चलती रहेगी.
भगवान न करे इन विसंगतियों के मारों में से तीन-चार चड्ढी-बनियान पहने हमारे-आपके या हमारे-आपके जाने हुओं में से किसी के घर में घुस आये तो हम कैसे रियेक्ट करेंगे ! यह प्रतिक्रिया तो, हाँ अवश्य नहीं होगी ..कि बेचारे सामान जो ले गये, चलो अच्छा हुआ .. पता नहीं बेचारों ने भर पेट खाया भी होगा या नहीं.
:-))))
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी और आ डा प्राची जी ,ममै एक बात स्पष्ट करना चाहूँ गी कि मेने किसी समस्या का नही दिया है बल्कि समस्या बताई है कि यह सब ठीक नही हो रहा है ,आभार
आदरणीया रेखाजी, आपके कहने को मैं सम्मान देता हूँ. आपका आशय सही हो सकता है. किन्तु आपके कहने से जैसा मैं समझ पा रहा हूँ वो यों है कि यदि किसी के दांतों में असह्य पीड़ा हो, बर्दाश्त से बाहर.. तो उसे लोहे की लाल-तप्त छड़ से अपना पेट दाग लेना चाहिये. ताकि आगे उसका सारा ध्यान --और दर्द भी-- पेट पर केन्द्रित हो जाये. दाँत के दर्द की ओर ध्यान ही नहीं जायेगा. क्या यह समस्या का उचित समाधान होगा ?!
आदरणीया, जिस भयंकर विसंगति को दर्शाने की आप बात कर रही हैं, उसे अधिक सहज, संयत, साथ ही अत्यंत सार्थक कथा-बिम्ब चुनने की आवश्यकता है. जो तार्किक भी हो और स्वीकार्य भी.
आपकी नयी रचना की प्रतीक्षा में --
सौरभ
आ० रेखा जी
आपकी लघुकथा का आदरणीय गणेश जी नें जो परिवर्तित प्रारूप प्रस्तुत किया है उससे ना केवल लघुकथा संदेशपरक लग रही है बल्कि समाज में (अमीर व गरीब के प्रति) व्याप्त नज़रिए में आई कई विद्रूपताओं को सशक्तता से उजागर भी कर रही है..
अन्यथा //अमीर और गरीब के बीच की खाई यूँही बढती रही तो अराजकता की स्थिति// भी स्पष्टतः प्रस्तुत नहीं हो पा रही ..
इस लघुकथा प्रयास के लिए आपको बधाई और इस पर सार्थक परिवर्तन सुझा कर सभी को सीखने का अवसर सुलभ कराने के लिए आ० गणेश जी को धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ पांडे जी ,,कथा का उदेश्य केवल समाज को उसका कुरूप चेहरा दिखाना मात्र है ,अगर अमीर और गरीब के बीच की खाई यूँही बढती रही तो अराजकता की स्थिति आने में देर नही है ,सादर
आदरणीय बागी जी ,कथा का उदेश्य केवल समाज को उसका करूप चेहरा दिखाना मात्र है ,अगर अमीर और गरीब के बीच की खाई यूँही बढती रही तो अराजकता की स्थिति आने में देर नही है ,सादर
मैं भाई शभ्रांशु और गणेश भाई जी के विचारों से सहमत हूँ. शुभ्रांशूजी ने जिस लिहाज़ से इस कथा को समझा है उस लिहाज से कथा लिखी तक न जा सकी है इसका अधिक अफ़सोस है.
भाई गणेशजी ने जिस तरह से कथा को आयाम दिया है वह लघुकथाओं के विन्यास पर उनकी ज़बर्दस्त पकड़ का उम्दा उदाहरण है.
मैं भी लघुकथा के इंगितों से सहज नहीं हूँ. आदरणीया रेखा जी की मंशा सही है लेकिन कथा की वैचारिकता को सम्हाल नहीं पायी हैं.
सादर
//राजू ने चोरी की और उसे कबूल भी कर लिया ,सजा भी लेने को तैयार हो गया क्योंकि उसके बेटे की जिंदगी इन सब से उपर थी //
तो क्या राजू उद्देश्य में सफल हुआ ? अगर नहीं तो फिर कथा का उद्देश्य क्या ?
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