कितने ही मरुथल
छूट गये पीछे
पगली आशाओं को
मुट्ठी में भींचे
नदिया सी रेतीली
राहों में बहती
कलुष भी वहन करतीं
धाराएँ जीवन की
अवचेतन में, गुपचुप
सुख दुःख को बांचें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
दादी अम्मा का
भैय्या को दुलराना
चुपके से, दूध- भात
गोद में खिलाना
किन्तु 'परे हट' कहकर,
उसे दुरदुराना
रह- रहकर कोचें
वह शैशव की फासें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें !
जागी आँखों का वह
सपन नये बुनना
इन्द्रधनुष के रंगों में
उनको रंगना
पंख ले उमंगों के
तितली सा उड़ना
तंग दायरों ने वे
फैले पर काटे
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें
कभी हुई सावित्री
कभी बनी सीता
जीवन को होम किया
देवी पद जीता
स्नेह लुटाया, फिर भी
अंचल था रीता
रिश्तों का महासमर
शकुनि की बिसातें
स्त्री मन की गाठें-
अनगिन असंख्य गाठें
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
अनेकानेक धन्यवाद जितेन्द्र 'गीत' जी.
आदरणीया विनीता जी आपने स्त्री मन की गाठो को खोल कर रख दी है | बहुत बहुत बधाई
आदरणीय विनीता जी , बचपने से लेकर जीवन भर सही हुई बातों से पडने वाली गाठों का बहुत अच्छा चित्रण किया आपने !! बधाई !!
सच! बहुत ही गहरा प्रभाव डालती है आपकी रचना, बधाई हो आदरणीया विनीता जी
हार्दिक धन्यवाद अन्नपूर्णा जी.
आदरणीया वंदना जी आपकी लेखनी को नमन , कितना प्रभावशाली लेखन है आपका । बहुत बढ़िया इस अनुपम रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
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