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Vinita Shukla's Blog (15)

स्त्री मन की गाठें

कितने ही मरुथल

छूट गये पीछे

पगली आशाओं को

मुट्ठी में भींचे

नदिया सी रेतीली

राहों में बहती

कलुष भी वहन करतीं

धाराएँ जीवन की

अवचेतन में, गुपचुप

सुख दुःख को बांचें

स्त्री मन की गाठें-

अनगिन असंख्य गाठें !

दादी अम्मा का

भैय्या को दुलराना

चुपके से, दूध- भात

गोद में खिलाना

किन्तु 'परे हट' कहकर,

उसे दुरदुराना

रह- रहकर कोचें

वह शैशव की फासें

स्त्री मन की गाठें-

अनगिन असंख्य गाठें !

जागी…

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Added by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 3:04pm — 16 Comments

माँ की डायरी से

१- सितार के टूटे हुए तार

 वह एक भावुक, कमनीय सी लडकी; सब सहपाठी छात्राओं से, आयु में कहीं छोटी।  कई क्लासें फांदकर बारहवीं तक पहुंची थी ताकि विधवा माँ को, हर बार, फीस के पैसे न चुकाने पड़ें.  उसके अभावग्रस्त परिवार में, सपनों के लिए, कोई स्थान न था. लेकिन ख्वाबों के पर, फिर भी, निकल ही आते हैं! अम्मा ने किसी प्रकार पैसे जोड़कर, उसे एक नन्हा सा सितार दिलवाया क्योंकि स्कूल में, सितार भी एक विषय था. सितार को देखते ही, उसे रोमांच हो आया. हृदय की सुप्त उमंगें, उमड़ पड़ीं.

अब…
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Added by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 11:15am — 24 Comments

उसे नहीं बनना सिन्ड्रैला



तुम्हारे उदार आमन्त्रण पर
अब नहीं आयेगी
परीकथा की नायिका
दौड़ाकर पवन के घोड़े
लुभावने इंद्रजाल को ओढ़े-
वह एक रात की

राजकुमारी...
नही... उसे नहीं
बनना सिन्ड्रैला!
काँटों में ही खिलता है
शोख जंगली गुलाब
गुलदान का बासी पानी 

चुरा लेता, उसकी आब
चौखटे में जड़ नहीं सकता  

वजूद उसका

मुखौटों की भीड़ में वह

गुमशुदा…
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Added by Vinita Shukla on August 20, 2013 at 9:37am — 14 Comments

शब्द ही तो थे

शब्द ही तो थे …

नयनों के झिलमिल
बिम्बों की भाषा

तरल सीकरों में
ढलती अभिलाषा

टूट तो जाने ही थे

अन्तस् के बंध;

विष  से उफनाये वे-

कटुता के छंद !

शब्द ही तो थे...

फट पडीं, ज्यों बेतरह
कपास की गाठें
चिंदी चिंदी  बिखर गये -

अनछुए अर्थ
विद्रोही पवन का

पाकर स्पर्श 
खुले अवगुंठन

 वह उद्दात्त मन का…

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Added by Vinita Shukla on August 4, 2013 at 4:00pm — 34 Comments

जब तुम कहते हो

तुम्हारा प्रेम -

खुद तुम्हारा ही

गढ़ा  फलसफा

सुविधाजीवी सोच से

तौला हुआ

 नुक्सान नफ़ा

जब तुम कहते हो -

प्रेम है तुम्हें

बुनते हो

मोहक भ्रमजाल

अंतस- द्वीपों में

ज्यों भित्तियां

रचते प्रवाल

 

१- मित्रों की मंडली में

वह अनर्गल सी हंसी

देह के ही व्याकरण में

उलझकर रहती फंसी

 हो न सकती

उसमें मुखरित

सहचरी या प्रेयसी

जब तुम कहते हो-

प्रेम है तुम्हें

झूठ होता है

वह…

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Added by Vinita Shukla on July 23, 2013 at 3:00pm — 12 Comments

एक्वेरियम की मछलियाँ

कांच की दीवारों में
साँसों के स्पंदन
कसमसाती पूंछ
छटपटाते डैने
शो पीस सरीखा जीवन

रास न आयें इन्हें

थोपी हुई रंगीनियाँ

एक्वेरियम में कैद
सुन्दर देह वाली  
मछलियाँ

है नहीं तलछट से

छनती धूप

अब इनके लिए

अरसा हुआ

लहरों की

स्वर्णिम गोद में

 खेले हुए
 चट्टानों की ऒट से
आखेट लुकछिप कर किये
मूँगों के झुरमुट में मानों
कौंधती…
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Added by Vinita Shukla on June 7, 2013 at 9:30am — 28 Comments

तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा

तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा

जिसके पार -

लहराती हैं

बदहवास हवाएं

गूंजते जहाँ-

अतीत के गीत

सायास

बज उठती है

अकुलाई सुधियों…

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Added by Vinita Shukla on March 8, 2013 at 3:00pm — 11 Comments

हम ढोते हैं अपनी विरासत को

हम ढोते हैं अपनी विरासत को

सभ्यता को

संस्कृति को

शाश्वत दर्शन को

बिना जाने

बिना समझे 

जीवन में उतारे बिना

हम पूजते हैं

अपने मूल्यों को

बिना समझे

बिना जाने

भटकते हैं

रौशनी के काफिले

हमें गर्व है

अपनी थाती पर

वेदों पर

पुराणों पर

मोहनजोदड़ो, हड़प्पा

के अवशेषों पर 

कटकर

अपनी जड़ों से-

कैसा

माटी का गुणगान ?

अध्यात्म की वृहद चर्चाओं में

कथित 'बाबाओं' की सभाओं में

खेली- खाई…

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Added by Vinita Shukla on February 18, 2013 at 10:08am — 25 Comments

उदास लडकियां

उदास लडकियां

नहीं कहतीं किसी से-

 अपनी उदासी का सबब

करतीं इसरार नहीं

अम्मा से, भैय्या से

होती न बतकही

छुटकी गौरैय्या से

तितलिओं के पीछे भी

 भागतीं नहीं जब तब

निर्दय, नृशंस

समय की दस्तक!

उदास लडकियां

नहीं कहतीं किसी से-

 अपनी उदासी का सबब

टोली बच्चों की

 जो गलियों में

करती है शोर;

कडक्को, पकडम पकडाई

खो- खो,

पतंगों की

कटती हुई डोर;

पी लेतीं आँखें

मासूम बदहवासी को

उदास लडकियाँ …

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Added by Vinita Shukla on January 23, 2013 at 11:45am — 16 Comments

लघु कथा: चरण- स्पर्श

रमिता रंगनाथन, मिसेज़ शास्त्री की खातिर में यूँ जुटी थीं- मानों कोई भक्त, भगवान की सेवा में हो। क्यों न हो- एक तो बॉस की बीबी, दूसरे फॉरेन रिटर्न। अहोभाग्य- जो खुद उनसे मिलने, उनके घर तक आयीं! पहले वडा और कॉफ़ी का दौर चला फिर थोड़ी देर के बाद चाय पीना तय हुआ। इस बीच 'मैडम जी', सिंगापुर के स्तुतिगान में लगीं थीं- "यू नो- उधर क्या बिल्डिंग्स हैं! इत्ती बड़ी बड़ी...'एंड' तक देख लो तो सर घूम जाता है...और क्या ग्लैमर!! आई शुड से- 'इट्स ए हेवेन फॉर शॉपर्स'..." रमिता ने महाराजिन को, चाय रखकर जाने का…

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Added by Vinita Shukla on October 26, 2012 at 3:00pm — 6 Comments

नागफनी

मेरे पास नहीं

बूढ़े बरगद सी बाहें

फैलाकर

जिन्हें अनवरत 

बांट सकूं 

छांह

धरती को चीरती 

विकराल  जड़ें -

गहराइयों  की

लेती जो थाह  

पास नहीं मेरे

पीपल का जादुई

संगीत

वो  हरी- भरी

काया ,

वह पत्तों का

मर्मर  गीत 

कोई न

पूजे मुझको 

पीपल, बरगद

के मानिंद

कंटकों से

पट गयी है 

देह ऐसे-

निकट आते

हैं नहीं

खग वृन्द

मरुथली संसार में

रेत के विस्तार में…

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Added by Vinita Shukla on October 14, 2012 at 12:30pm — 14 Comments

मुट्ठी भर रेत

ये जीवन मानों -
मुट्ठी भर रेत
झरती हैं खुशियाँ
झरते हैं सपने
इक पल
 हँसना तो
दूजे पल
क्लेश
ये....................

 रेतघड़ी समय की
चलती ही रहती
लम्हों की पूंजी
हाथ से फिसलती
बस स्मृतियों के
रह जाते अवशेष
ये....................

किसी से हो मिलना
किसी से बिछड़ना
जग के मेले में
बंजारे सा फिरना
दुनिया आनी जानी -
 सत्य यह अशेष
ये .......................




Added by Vinita Shukla on October 4, 2012 at 10:31am — 8 Comments

हम हो न सकते नीलकंठ

व्योमकेश !

हम हो न

सकते नीलकंठ ....

 गरल कर

धारण स्वयम

तुमने उबारा

संसृति को 

अमिय देवों

ने पिया

झुकना पड़ा

आसुरी प्रकृति को

थम गया

तव कंठ में ही

सृष्टि का विध्वंस

हम हो न सकते ....

साक्षी थे

तुम भी तो

विकराल मंथन के

सर्प सम संतति

समूची

तुम ही चन्दन थे

विष तुम्हें डंसता नहीं

देता हमें शत दंश

व्योमकेश!

हम हो न सकते......

दृष्टि तेजोमय तुम्हारी …

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Added by Vinita Shukla on September 20, 2012 at 11:00pm — 19 Comments

ये हादसे.......

ये  हादसे -

महज

अखबार की सुर्खियाँ

 पढ़कर इन्हें

जगती नहीं  संवेदना

 बेस्वाद नहीं होतीं

 चाय की चुस्कियां

ये हादसे............

देख- सुन

अत्याचार अनाचार

कछुवे की भांति निर्विकार

सर घुसा लेते हैं

विश्रांति की खोह में

सुस्ताते दो पल

और भूल जाते सब कुछ

जीने के मोह में

पाषाण बन जाती हैं

अनुभूतियाँ

ये..................

नुक्कड़,  चौराहों में

दफ्तर, मुह्ल्लों में

उछलते हैं जब

  मुद्दे यही

तो…

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Added by Vinita Shukla on September 13, 2012 at 9:17am — 7 Comments

चाँद

पेड़ों के झुरमुट में
छुप छुप भरमाता है
मेघों के अंचल में
अटक अटक जाता है
यायावर सा फिरता
 मतवाला चाँद
उषा- रश्मियों से घिर
 धुंधलाता जाता है
 अरुणाभा में, नभ की
डूबता- उतराता है
चलाचली की बेला 
कहता सूरज को विदा 
पवन से पराग की
पीकर हाला चाँद


Added by Vinita Shukla on September 9, 2012 at 9:43pm — 3 Comments

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