मेरे पास नहीं
बूढ़े बरगद सी बाहें
फैलाकर
जिन्हें अनवरत
बांट सकूं
छांह
धरती को चीरती
विकराल जड़ें -
गहराइयों की
लेती जो थाह
पास नहीं मेरे
पीपल का जादुई
संगीत
वो हरी- भरी
काया ,
वह पत्तों का
मर्मर गीत
कोई न
पूजे मुझको
पीपल, बरगद
के मानिंद
कंटकों से
पट गयी है
देह ऐसे-
निकट आते
हैं नहीं
खग वृन्द
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को -
होना ही
पड़ता है
नागफनी!
Comment
बहुत बहुत धन्यवाद आ. अविनाश जी.
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को -
होना ही
पड़ता है
नागफनी! ...bahut khoob..Vinita Shukla ji
कोटिशः धन्यवाद राजेश जी,
आपकी इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई
आदरणीय सौरभ जी, सराहना एवं मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ,
विनीताजी, बहुत खूब ! क्या ही सुन्दर संप्रेषण ! आपकी संवेदनशील रचना को हृदय से बधाई कह रहा हूँ !
कविता की आखिरी पंक्तियाँ आवश्यकतानुसार भाव-विस्फोट का बहुत सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं.
फिरभी, आपकी सहमति से मैं उन पंक्तियों को पुनः प्रस्तुत करूँ तो --
वहां वनस्पतियाँ... .
आखिर हो ही जाती हैं
नागफनी !
कोटिशः धन्यवाद रेखा जी.
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को -
होना ही
पड़ता है
नागफनी! ,बहुत खूबसूरत रचना विनीता जी ,हार्दिक बधाई
हार्दिक आभार सीमा जी.
अनेकानेक धन्यवाद राजेश कुमारी जी.
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