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मेरे पास नहीं
बूढ़े बरगद सी बाहें
फैलाकर
जिन्हें अनवरत 
बांट सकूं 
छांह
धरती को चीरती 
विकराल  जड़ें -
गहराइयों  की
लेती जो थाह  
पास नहीं मेरे
पीपल का जादुई
संगीत
वो  हरी- भरी
काया ,
वह पत्तों का
मर्मर  गीत 
कोई न
पूजे मुझको 
पीपल, बरगद
के मानिंद
कंटकों से
पट गयी है 
देह ऐसे-
निकट आते
हैं नहीं
खग वृन्द
मरुथली संसार में
रेत के विस्तार में
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही
पड़ता  है
नागफनी!

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Comment

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Comment by Vinita Shukla on October 16, 2012 at 2:11pm

बहुत बहुत धन्यवाद आ. अविनाश जी.

Comment by AVINASH S BAGDE on October 16, 2012 at 11:35am

मरुथली संसार में 
रेत के विस्तार में 
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ 
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही 
पड़ता  है 
नागफनी! ...bahut khoob..Vinita Shukla ji

Comment by Vinita Shukla on October 15, 2012 at 2:20pm

कोटिशः धन्यवाद राजेश जी,

Comment by राजेश 'मृदु' on October 15, 2012 at 1:15pm

आपकी इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई

Comment by Vinita Shukla on October 15, 2012 at 11:47am

आदरणीय सौरभ जी, सराहना एवं मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2012 at 9:03am

विनीताजी, बहुत खूब ! क्या ही सुन्दर संप्रेषण ! आपकी संवेदनशील रचना को हृदय से बधाई कह रहा हूँ !

कविता की आखिरी पंक्तियाँ आवश्यकतानुसार भाव-विस्फोट का बहुत सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं.

फिरभी, आपकी सहमति से मैं उन पंक्तियों को पुनः प्रस्तुत करूँ तो --

वहां वनस्पतियाँ... . 
आखिर हो ही जाती हैं 
नागफनी !

Comment by Vinita Shukla on October 15, 2012 at 8:45am

कोटिशः धन्यवाद रेखा जी.

Comment by Rekha Joshi on October 14, 2012 at 10:16pm

मरुथली संसार में 
रेत के विस्तार में 
जल रहा कण कण जहाँ 
कुंठित जीवन जहाँ 
वहां वनस्पतियों को  -
होना ही 
पड़ता  है 
नागफनी! ,बहुत खूबसूरत रचना विनीता जी ,हार्दिक बधाई  

Comment by Vinita Shukla on October 14, 2012 at 10:07pm

हार्दिक आभार सीमा जी.

Comment by Vinita Shukla on October 14, 2012 at 10:06pm

अनेकानेक धन्यवाद राजेश कुमारी जी.

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