रमिता रंगनाथन, मिसेज़ शास्त्री की खातिर में यूँ जुटी थीं- मानों कोई भक्त, भगवान की सेवा में हो। क्यों न हो- एक तो बॉस की बीबी, दूसरे फॉरेन रिटर्न। अहोभाग्य- जो खुद उनसे मिलने, उनके घर तक आयीं! पहले वडा और कॉफ़ी का दौर चला फिर थोड़ी देर के बाद चाय पीना तय हुआ। इस बीच 'मैडम जी', सिंगापुर के स्तुतिगान में लगीं थीं- "यू नो- उधर क्या बिल्डिंग्स हैं! इत्ती बड़ी बड़ी...'एंड' तक देख लो तो सर घूम जाता है...और क्या ग्लैमर!! आई शुड से- 'इट्स ए हेवेन फॉर शॉपर्स'..." रमिता ने महाराजिन को, चाय रखकर जाने का इशारा किया. गायित्री शास्त्री ने चाय का प्याला उठाया भी, पर एक ही घूँट के बाद मुंह सिकोड़ लिया- "इट्स वैरी स्ट्रोंग! हम लोग तो फॉरेन- ट्रिप में बहुत लाईट 'टी' पीते थे...एंड फ्लेवर वाज़ सो सूदिंग!! " रमिता कुढ़ गयी. श्रीमती जी को 'शीशे में उतारना' इतना सहज न था. तभी उसे कुछ सूझा और तब जाकर- दिमाग की तनी हुई नसें, थोडी ढीली पड़ीं.
"विनायक" उसने बेटे को आवाज़ दी," जरा देखो तो कौन आया है." विनायक का प्रवेश हुआ; उसने रट्टू तोते की भांति आंटी को 'गुड -मॉर्निंग' विश किया तो रमिता बोली, "ऐसे नहीं, आज 'विशु'( एक तमिल त्यौहार) है. आज के दिन बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं" विनायक ने झुककर गायित्री के चरण छुए तो उन्हें बेस्वाद चाय को भूलकर, 'गार्डेन गार्डेन' होना ही पडा. इम्पोर्टेड चौकलेट का डिब्बा बेटे को थमाते हुए, रमिता ने कहा, "ये स्वीट्स आंटी सिंगापुर से लायी हैं- इट्स लाइक ए विशु गिफ्ट फॉर यू " फिर गर्व से 'मैडम' को देखकर कहा, "अवर इंडियन कलचर यू नो!" न चाहते हुए भी 'श्रीमतीजी' चारों खाने चित्त हो गयीं थीं- अपनी पति की 'जूनियर' के आगे!
यह तो अच्छा ही हुआ कि विनायक का गिटार- टीचर थोडा लेट आया. नहीं तो वो भी यहीं सोफे में बैठ जाता और रंग में भंग पड जाता. विनायक को रमिता ने ताकीद भी कर रखी थी- "इस आदमी को लिविंग रूम में मत बैठाया करो...यह हमारी बराबरी का नहीं." पर बेटा प्रतिवाद करने की कोशिश करता, "अम्मा, मुकुन्दन मेरे गुरु हैं और मैं उनकी इज्ज़त करता हूँ" लेकिन माँ की जलती हुई आँखों के आगे, उस बेचारे की गुरु भक्ति धरी रह जाती.मुकुन्दन को आते देख रमिता, वर्तमान में लौट आई. परन्तु यह वो क्या देख रही थी! विनायक ने लपककर, अपने उस 'तथाकथित' गुरु के पैर छू लिए!! माँ के आपत्ति से भरे हाव- भाव भी, बेटे को विचलित न कर सके. मुस्कुराकर बोला, " इट्स विशु अम्मा" और मुकुन्दन को लेकर भीतर चला गया. रमिता चुपचाप, उन्हें जाते हुए देखती रही -बिलकुल असहाय सी!!!
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कोटिशः धन्यवाद भ्रमर जी, सराहना एवं उत्साहवर्धन के लिए.
हार्दिक धन्यवाद सीमा जी, रचना में निहित भाव को ग्रहण कर, सकारात्मक टिप्पणी देने हेतु.
बहुत सटीक व्यंग विनीता जी इंसान का मान उसके रुतबे से ऊंचा या नीचा समझने की प्रवृत्ति आज से नहीं बहुत पहले से है | ये वर्गीकरण कभी रंग, कभी जाति,कभी आर्थिक स्थिति, तो कभी सामाजिक, किसी न किसी रूप में हमारे बीच बना ही रहता है
बहुत बहुत धन्यवाद शालिनी जी.
ये ही है हमारी संस्कृति जो बड़ों के माननीयों के पैर हमसे छूने को प्रेरित करती है सार्थक भावपूर्ण प्रस्तुति बधाई
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