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किंचित तो गुरुता नहीं, अन्तरमन में शेष।
लेकिन बैठे छद्म कर, धारण गुरु का वेश॥  
धारण गुरु का वेश, विषयरत कामी–लोभी।
लेकर प्रभु का नाम, लूट लेते प्रभु को भी॥
करुणाकर भी सोच, सोच कर होंगे चिंतित।
रच कर मानुष-वर्ण, भूल कर बैठा किंचित!!


_______मौलिक / अप्रकाशित________

- संजय मिश्रा 'हबीब'

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Comment by Dr.Prachi Singh on September 3, 2013 at 5:14pm

आदरणीय संजय मिश्रा जी 

गुरुता की अवधारणा को कलंकित करने वाले सामयिक मुद्दे पर सुन्दर कुंडलिया प्रस्तुत की है 

सादर शुभकामनाएँ 

Comment by annapurna bajpai on September 3, 2013 at 3:53pm

आ० संजय जी एक व्यंग्यात्मक कुण्डलिया छंद के लिए आपको हार्दिक बधाई । 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 3, 2013 at 3:11pm

 संजय भाई- सप्रेम राधे- राधे ।। सामयिक तीखे व्यंग्य पर बधाई। 

Comment by ram shiromani pathak on September 3, 2013 at 2:43pm

 कुण्डलिया  छंद के माध्यम से सटीक  व्यंग किया है आपने  आदरणीय//हार्दिक बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on September 3, 2013 at 12:19pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

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