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हाँफता काँपता सा

हाथी भागा जा रहा था

चीखता हुआ

‘वो निकाल लेना चाहते हैं

मेरे दाँत

सजाएँगे उन्हें

अपने दीवानखाने में

मूर्तियाँ बनाकर

जैसे पेड़ों को छीलकर

बना डालीं फाइलें

और प्रेमपत्र।‘

- बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

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Comment by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 6:09am

आदरणीय जितेन्द्र जी बहुत बहुत आभार!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 5, 2013 at 3:07am

बेहद प्रभावशाली रचना , बहुत बहुत बधाई आदरणीय बृजेश जी

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 11:39pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by annapurna bajpai on September 4, 2013 at 11:15pm

आदरणीय बृजेश जी-  देखन मे छोटी लगे , घाव करे गंभीर , वाली कहावत यहाँ फिट बैठ रही है । हाथी की पीड़ा दर्शाती इस रचना पर आपको बधाई । 

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 7:06pm

आदरणीय राजेश भाई लिखी तो मैंने कविता ही समझकर!
अब आपसे बेहतर तो मेरा नजरिया है भी नहीं इसलिए यह आप पर है कि आप ही निर्णय करें और मुझे मार्गदर्शन प्रदान करें।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 7:03pm

आदरणीय आशुतोष जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 7:02pm

आदरणीय रविकर जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 6:56pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! आप जैसी रचनाकार से अपनी रचना का अनुमोदन पाना मेरे लिए उपलब्धि है।
सादर!

Comment by राजेश 'मृदु' on September 4, 2013 at 5:51pm

आदरणीय, ये कविता है या लघु कहानी ?  कृपया संशय दूर करें या दोनों तरीके से देख सकते हैं ?  सादर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 4, 2013 at 4:52pm

चिंतन के लिए बिबश कर रही है ..कितना दुखद है ...आपको ढेरों बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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