चिंगारियाँ
बूंद-बूंद टपकती
घबराती बेचैनी,
बेचैन ख़यालों के भीतरी अहाते --
जहाँ कहीं से आती थी याद तुम्हारी
बंद कर दिए थे उन कमरों के दरवाज़े,
पर समय की धारा-गति कुछ ऐसी
दरवाज़े यह समाप्त नहीं होते,
गहरे में उतर-उतर आती है अकुलाहट
कई दरवाज़ों के पीछे से आती है जब
सुनसान आवाज़, तुम्हारी करुण पुकार,
तुम थी नहीं वहाँ, हाँ मैं था
और था मेरा कांपता आसमान
टूटते तारे-सा गिरने का जिसका भान
हुआ था तुमको, मुझको भी, उस शाम।
थी घबराई कोई शून्याकृति कहीं --
या थीं वह तुम्हारी बेचैन आँखें
इस कमरे में उस कमरे में विस्मित-सी,
और मैं इन कमरों को बंद कर न सका।
बुझती रातों में इन खुले हुए दरवाज़ों से,
तिमिर-पथों से आती शिशु-रुदन-सी
सिसकियाँ
दुख की कथाएँ
घूमती हैं हज़ारों चिनगारियों-सी
अब तुम्हारे अभाव का ताप बनी।
चुभती जलती चिनगारियों से घायल
मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं
तुम्हारी जायज़ शिकायतें
तुम्हारे दुखों के दाग।
-------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी:
आपने रचना की सराहना की, मेरा मनोबल बढ़ा। धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय श्याम नारायण जी:
आपने इस रचना को सराहा ही नहीं, इसे "likes" में संजो के रखा, आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय गिरिराज जी, रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
वाह अत्यंत सुन्दर पंक्तियाँ आदरणीय आनंद आ गया ढेरों बधाई आपको
अब तुम्हारे अभाव का ताप बनी।
चुभती जलती चिनगारियों से घायल
मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं
तुम्हारी जायज़ शिकायतें
तुम्हारे दुखों के दाग।...................सुन्दर रचना हेतु बधाई स्वीकारें परम आदरणीय
मेरी रातें सतहों की परतों में ढूँढती हैं
तुम्हारी जायज़ शिकायतें
तुम्हारे दुखों के दाग।
एहसासों से भरी एक सुन्दर रचना ....बधाई सर ....
बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
आ0 निकोर सर जी, सादर प्रणाम! वाह! बहुत सुन्दर प्रस्तुति। आपको बहुत बहुत शुभकामनाओं सहित हार्दिक बधाई। सादर,
सुंदर भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर, बहुत बहुत बधाई आदरणीय विजय जी
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