सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
जब तक था लड़ता रहा
कभी गर्म लू के थपेड़ों को
बरसात, खून जमाने वाली
ठंड को सहता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उसकी शाखों को काट- काट कर
लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये
खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये
जुल्म की आग में वो जलता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
उम्र कोई उसकी कम न कर सका
जब तक जीना था वो जिया
जब तक हरा भरा जवान था
हवा व छांव दुनिया को दिया
युग- युग की कहानी कहता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था
-मौलिक और अप्रकाशित
Comment
भाई चन्द्रशेखर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
मनुष्य की स्वार्थपरता, कम होते प्रकृति प्रेम व पर्यावरणीय नैतिकता के अभाव को बिम्बित करती सुन्दर रचना।
उसकी शाखों को काट- काट कर
लोगों ने घरों के दरवाज़े बनाये
खिड़कियाँ बनाई खुद को छुपाने के लिये
जुल्म की आग में वो जलता रहा
सूखा दरख्त जो मेरे आँगन में था // वाह्ह्ह बधाई आदरणीय।
आदरणीया डॉ प्राची रचना के अनुमोदन के लिये आपका आभार
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका आभार,
सूखे दरख़्त की स्मृतियों को प्रस्तुत करती सुन्दर अभिव्यक्ति
हार्दिक बधाई
आदरणीया विजयश्री जी आपका आभार
भाई जितेन्द्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीया वंदना जी आपका आभार
आदरणीय गिरिराज सर आपका शुक्रिया,
ये अतुकांत नही है, ये तब की कविता है जब मै दिल के भावों को कागज़ पे अल्फाज़ की शक्ल में उकेरा करता था अब तो थोड़ी बहुत शिल्प की जानकारी भी है,
सादर
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