वज्न: 2122 1122 1122 22/112
कोई याद अब करे है मुझको भुलाने के बाद
नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद
हो गया गर्क़ सफीना मेरा इक तूफां में
चुप है अब मौजे-तलातुम यूँ डुबाने के बाद
लगती है बोली परस्तिश को अकीदत की यहाँ
अब यकीं लुटता है बाज़ार में आने के बाद
रोये क्यूं अपनी तबाही पे अब ऐ नादां तू
खुद मुदावे को गया जान से जाने के बाद
ऐ बशर अब न पशेमां हो नई सांस ले यूँ
इक नई शमअ-ए-उम्मीद जलाने के बाद
-मौलिक और अप्रकाशित
Comment
अपनी ग़ज़लों में उन्हीं शब्दों को स्थान दें जिनके प्रति आप आश्वस्त हों. ऐसा मानना कि ग़ज़ल बिना फ़ारसी या अरबी शब्दों के उचित प्रतीत नहीं होती तो यहभ्रम है, भाईजी. हिन्दी तत्सम शब्दों का सम्यक प्रयोग करते हुए इलाहाबाद से स्वनामधन्य विद्वान और ग़ज़लकार आदरणीय एहतराम इस्लाम जी ने अद्भुत ग़ज़लें कही हैं जो आज स्वयं में मिसाल हैं.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया, आपकी रचनाओं पर साफ टिप्पणी सतत सुधार को प्रेरित करती है, आपके सुझाव पर अमल करने की कोशिश करूंगा अभी मेरे शब्द ज्ञान में कुछ कमी है इसलिये ऐसा हो रहा है.
भाई शिज्जूजी, आपकी गज़ल मेहनत और इत्मिनान से लिखी हुई ग़ज़ल लगी.
सभी पाठकों का अनुमोदन अच्छा लगा.
एक निवेदन, बार-बार मात्राओ का गिराना भी एक दोष की तरह लिया जाता है.
शुभेच्छाएँ
भाई रामशिरोमणि जी आपका आभार
कोई याद अब करे है मुझको भुलाने के बाद
नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद
वाह बेहद खूबसूरत ग़ज़ल // आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीया विजयश्री जी उत्साहवर्द्धक टिप्पणी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया
कोई याद अब करे है मुझको भुलाने के बाद
नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद
वाह ! खुबसूरत ग़ज़ल
आदरणीय बृजेश जी एवं विजय जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
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