!!! पाठशाला बेमुरव्वत !!!
लोग मन को जांचते हैं,
भांप कर फिर काटते हैं।।
जब किसी का हाथ पकड़ें,
बेबसी तक थामते हैं।
धूप में बरसात में भी,
छांव-छतरी झांकते हैं।
दोस्तों से दुश्मनी जब,
रास्ते ही डांटते हैं।
छोड़ते हैं दर्द विषधर
बालिका को साधते हैं।
आज गरिमा मर चुकी जब,
गीत - कविता भांपते हैं।
जिंदगी में शोर बढ़ता
रिश्ते सारे सालते हैं।
पाठशाला बेमुरव्वत,
प्राण अस्मत चाहते हैं।
मैं सुनाऊं आप सुन लें
मौन दीपक कांपते हैं।
के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 बृजेश भाई जी, सादर प्रणाम! भाई जी, आप पाठक हैं या समीक्षक यह बात मेरे समझ में नहीं आयी। भाई! मेरी भाषा और शैली अनूठी है, जो कभी भी किसी से मेल नहीं खाएगी। क्यों कि मैं अपनी बात लिखता हूं। आपकी स्पष्टता और समझ को इस तालमेल में मत मिलाइए। आपके स्नेह के लिए आपका हृदयतल से आभार। सादर,
आ0 विजय भाई जी, सादर प्रणाम! आपके स्नेह और सराहना के लिए आपका हृदयतल से आभार। सादर,
आदरणीय केवल भाई बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
एक निवेदन कि कहन में ऐसी स्पष्टता अवश्य होनी चाहिए कि पाठक को झट समझ आ जाए। यह मेरी समझ भर है। हो सकता है कि आप कि इस विषय पर आपकी राय अलग हो।
सादर!
आ0 अरविन्द भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 भण्डारी भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 महिमा श्री जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 राम शिरोमणि भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 अरून अनन्त भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 अनिल भाई जी, आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
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