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भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही
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तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब होती रही
चीख़ दीवारों से टकरा सर कहीं धुनती रही
इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा
और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही
रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं
रात भर कोई शमा ख़ुद को कहीं खोती रही
मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा
हादिसे हँसते रहे पर ज़िंदगी रोती रही
इस तरफ था,ख्व़ाब मेरे टूटने का सिलसिला
और फ़ितरत उस तरफ से ख्व़ाब फिर बुनती रही
सोचता हूँ पूछ ही लूं,कातिबे तक़दीर से
कोई दुश्वारी मुझे हर बार क्यूँ चुनती रही
मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी
कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही
एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये
भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही
मुख़्तसर--संक्षिप्त
कातिबे तक़दीर---भाग्य लिखने वाला
ग़ैरत ---स्वाभिमान
Comment
वाह वाह लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने क्या कहने पढ़कर आनंद आ गया कुछ अशआर तो दिल को छू गए आदरणीय दिली दाद कुबूल फरमाएं.
आदरणीय राजेश कुमारी जी , आप मुझे शर्मिन्दा न करें , आपने मेरे भले के लिये ही सुझाव दिया था , मै अभी सीख ही तो रहा हूँ !! आगे भी आपके मार्ग दर्शन और स्नेह की ज़रूरत ऐसे ही रहेगी !! सादर !!
आदरणीय वीनस केसरी जी गुस्ताखी माफ़ !! नहीं नहीं आपने तो एक गुरु का धर्म निभाया है मैंने अपने अल्प ज्ञान से जो इस्स्लाह दी थी उसके लिए तो मुझे आदरणीय गिरिराज जी से गुस्ताखी माफ़ कहना चाहिए ,आपने बहुत बातें स्पष्ट की इस बात की ख़ुशी हो रही है ,और अपना गुरु धर्म निभाया आपकी तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ ज्ञान वृद्धि हेतु ये इता दोष एक बार आप यहाँ भी समझा दीजिये आपसे गुजारिश है
आदर्णीय अभिनव भाई , आपने तो सराहना मे इतनी बडी बात कह दी , बहुत खुशी हुई !! बहुत आभार !!
आदरणीय , वीनस भाई , क्या कहूँ , इतने विस्तार से और इतना अच्छा कमेंट देख के आनन्दित हूँ , आपका बहुत बहुत आभार !! इता दोषको समझ्नेका प्रयास जारी है , थोडी मुश्किल चीज़ लग रही है !! अपका पुनः हार्दिक आभार !!
मुख़्तसर अफ़साना मेरी ज़िन्दगी का ये रहा हादिसे हँसते रहे पर ज़िंदगी रोती रही ...वाह वाह श्री गिरिराज जी अरसे बाद ग़ज़ल की भूख को तृप्त करने वाली ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ ..आह्लादित हूँ औपचारिकता नहीं ह्रदय से बधाई आदरणीय कहन और शिल्प हर तरह से कामयाब यादगार ग़ज़ल हुई है ..शुभकामनायें
आज फुरसत से मंच पर मौजूद हूँ और कई ग़ज़लों पर बहुत कुछ कहते हुए इस ग़ज़ल पर पहुँच रहा हूँ
मुतासिर हुआ हूँ अंदाज़े बयाँ से ... निः संदेह ग़ज़ल कहने का यही लहजा होता है ... बात को इशारों में कहा जाए एक शेर के कई पहलू हों .. अनेक अर्थ हों ... भाई वाह
मैं अकेला कब रहा,यादों की पूरी भीड़ थी
कुछ ख़याल आते रहे तसवीर कुछ बनती रही
एक दुविधा थी कहीं पे इसलिये हम रुक गये
भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही ........... शानदार तगज्जुल के लिए ढेरो दाद ...
गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ आदरणीया राजेश कुमारी जी की दोनों इस्लाह से अपनी असहमति प्रकट करता हूँ
ख्याल का वज्न १२१ होता है न कि २१ अलिफ़ वस्ल अशआर की खूबसूरती को बढाता ही है इस लिहाज से मिसरा पहले बहर में था जिसे इस्लाह के साथ ही बेबहर कर दिया गया है
रौशनी करने की ठाने,घर के कोने में कहीं
रात भर कोई शमा ख़ुद को कहीं खोती रही
ज़बान के लिहाज से ये शेर बिलकुल दुरुस्त है ठानी करने से अल्फाज़ की अदायगी में ऐब पैदा हो रहा है
साथ ही जिस शेर को राजेशकुमारी जी ने पूरे नंबर दिए हैं उस पर यह कहना है कि ख़्वाब टूटने का सिलसिला कि जगह बेहतर होता कि ख़्वाबों के टूटने का सिलसिला होता और सानी में से भर्ती का लफ़्ज़ है इसकी जगह कुछ लफ़्ज़ रखा जाता तो लुत्फ़ कई गुना बढ़ जाता
एक लघु प्रयास प्रस्तुत है .. (शाइर खुद इस शेर को और बेहतर ढंग से कह सकते हैं)
था इधर ख्वाबों के मेरे टूटने का सिलसिला
और फ़ितरत उस तरफ कुछ ख्व़ाब फिर बुनती रही
मतले में इता दोष प्रस्तुत हो रहा है इससे बचना होगा ....
एक और शेर जो इस ग़ज़ल में बेहतरीन हुआ है वो यह है
इक फ़साना अश्क बनके आँख से बहता रहा
और वीरानी उसे खामोश हो सुनती रही
मगर इसमें भी आँख को आखों होना चाहिए .....
आदरणीया आन्नपूर्णा जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!
आदरणीय जितेन्द्र जी , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया !!
आदरणीय आशुतोष जी , गज़ल क्कीए सराहना के लिये आपका हारदिक आभार !!
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