कुलबुलाते कुछ अधखुले बीज
मेरे बरामदे के कोने में पड़े हैं
शायद माँ ने जब फटकारे
तो गिर गए होंगे
बारिश के होने से कुछ पानी और
नमी भी मिल गयी उन्हें
सफाई करते ध्यान भी नहीं दिया
बड़ी लापरवाह है कामवाली भी
दो दिन हुए हैं और बीजों ने
हाथ पैर फ़ैलाने शुरू कर दिए
हाँ ठीक भी तो है
मुफ्त में मिली सुविधा से
अवांछित तत्व फलते-फूलते ही हैं
पर अब जब वो यूँही रहे तो
बरामदे में अपनी जड़े जमा लेंगे
फिर ज़मीन में पड़ेंगी दरारे भी
मेरी माँ का खूबसूरत सा
बरामदा चटखने लगेगा
माँ को दुःख होगा...
क्यों न मैं ही इसे हटा दूँ अभी
इसकी बढ़ती टांगों से पहले
कल को ये घर में बदसूरती लाये
क्यों न मैं ही इसका वजूद मिटा दूँ
या इसे एक नयी ज़मी दूँ
जहाँ ये पनप सके.....जन्म ले सके
अभी ये नापसंद है माँ को
तब ये माँ का दुलार पा सके
एक हिस्सा बन जाये शायद
माँ के इस बरामदे का
खिली पत्तियाँ और रंगीन फूलों से
तब माँ को ख़ुशी होगी
और मुझे भी....
(मौलिक एव अप्रकाशित)
.......प्रियंका
Comment
आदरणीय....जितेन्द्र जी पसंदगी का बहुत बहुत शुक्रिया आपका .....
गीतिका जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका .....
आदरणीय...आशुतोष सर बहुत बहुत शुक्रिया आपका .....
बहुत अच्छा प्रयास है. आपको हार्दिक बधाई.
शिल्प थोडा और समय मांग रहा है.
सादर!
सुन्दर सच्चे भाव ..सृजन की काव्य वल्लरी की प्रस्तुति के लिए बधाई और शुभकामनायें प्रियंका जी !
बहुत ही उत्तम विचार हैं आदरणीया प्रियंका जी अब ये कामवाली की लापरवाही कहें या ईश्वर की मर्जी जब वे हाँथ पैर फैला ही रहे हैं तो क्यूँ न हम उन्हें बड़ा भी होने दें. हार्दिक बधाई स्वीकारें इस सुन्दर प्रस्तुति पर.
अच्छा वैचारिक मंथन हुआ है : इसके लिए बधाई आदरणीया प्रियंका जी
उत्तम विचारों से ओतप्रोत रचना , बधाई आपको ।
आदरणीया प्रियंका जी:
बहुत ही अनोखी सोच है, और रचना में विचारधारा को अच्छा सकारात्मक मोड़ दिया है।
आपको हार्दिक बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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