1 / आजादी के बाद ही हमें हिंदी को राष्ट्रभाषा, सरकारी कामकाज व न्यायालय की भाषा अनिवार्य रुप से घोषित कर देनी थी, पर अंग्रेज एवं भारत के अंग्रेजी पूजकों के बीच हुए समझौते ने और उसके बाद सत्ता पर बैठे अंग्रेजी समर्थकों ने भारत की आजादी को गुलामी का एक नया रुप दे दिया। “ तन से आजाद पर मन से गुलाम भारत का " और उसी दिन से शुरू हो गई भारत को धीरे - धीरे इंडिया बनाने की साजिश।
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2 / आजादी के बाद सत्ता के चेहरे तो बदल गये पर चरित्र नहीं बदले। अंग्रेजों ने उन्हें पूरी तरह अपने रंग में रंगकर सत्ता सौंपी थी, जिसका खामियाजा हिंदी आज तक भुगत रही है। गाँधीजी, पुरषोत्तमदासजी टंडन, वल्लभभाई पटेल, डा.राजेन्द्र प्रसाद, मराठी भाषी राष्ट्रीय नेता यहाँ तक कि बंगला भाषी रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी हिंदी के पक्षधर थे। हिंदी समर्थक राष्ट्रीय नेताओं की संख्या भी बहुत ज्यादा थी पर वे बड़े सीधे सच्चे व सरल थे। अंग्रेज और उनके भक्तों की धूर्ततापूर्ण चालें समझ नहीं पाए। एकजुट होकर अंग्रेजी का विरोध नहीं किए, परिणाम यह हुआ कि 1 प्रतिशत काले अंग्रेज 99 प्रतिशत पर हावी हो गए। आजादी के बाद ही पूरा भारत हिंदी को काम काज की भाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा देने सहमत हो गया था पर कुछ दक्षिण के नेताओं और उत्तर भारत के अंग्रेजी परस्तों ने मिलकर 15 वर्षों तक अर्थात 1962 तक अंग्रेजी लागू रहने और बाद में इसकी समीक्षा करने की बात मनवा ली। अर्थात् फिर एक बार अल्पमत बहुमत पर हावी हो गया, जिसका परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। और अब तो यह हाल है कि गली नुक्कड़ में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए।
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3 / हमने नकलची बच्चे की तरह अंग्रेजों की सारी गलत आदतें सीख ली। शराब पीने, जन्म दिन मनाने, आधुनिकता के नाम पर हनीमून पर जाने, अर्द्ध नग्न दिखने, अश्लील नृत्य करने, गाल से गाल मिलाकर औरतों का स्वागत् करने, पब और रेव पार्टियों में बहू बेटियों को भेजने, वेलेंटाइन डे मनाने आदि सभी बातों में फूहड़पन और गुलाम मांनसिकता साफ झलकती है। वेलेंटाइन डे मनाने वाले आजकल परिवार और प्रशासन से विशेष छूट की आशा रखते हैं और समर्थन में टी वी चैनल्स भी आ जाते हैं। यही कारण है बलात्कार के मामलों में हम विश्व में पहले नम्बर पर हैं। अब तो महिला उत्पीड़न के सैकड़ों अपराध प्रायः रोज होते हैं। अंग्रेजों से और अमेरिका आदि अन्य देशों से सीखने लायक एक मात्र जो अच्छी बात है “ अपनी भाषा, संस्कृति और परंपरा पर गर्व करना ”। और यही बात हम आज तक न सीख पाए। उल्टे हम उनकी भाषा, संस्कृति और परंपरा पर गर्व करने लगे जो एक गुलाम भारत की मजबूरी तो हो सकती है, आजाद भारत की नहीं। हम आदर्श भारतीय की जगह नकलची इंडियन बन गए। इसी नकलचीपन के चलते भारत की 9--10 महीने की गर्मी और उमस में भी हम टाई बांधे रहते हैं। स्कूल कालेज के बच्चे गर्मी में टाई से परेशान होते हैं। स्मार्ट बनने के चक्कर में मौसम के प्रतिकूल हमारे बेवकूफी पूर्ण निर्णय की सजा बच्चे और निजी कम्पनिओं के सेल्स अधिकारी/ कर्मचारी भुगत रहे हैं। ये अधिकारी दया के पात्र हैं, मैंने कुछ लोगों से बात की तो कहने लगे हमारी मजबूरी है, टाई हमारे ड्रेस कोड में है। ग्रीष्म की भरी दुपहरी में टाई लटकाए ये अधिकारी और गर्मी भर काले कोट/गाउन पहनने को मजबूर ये वकील कितने परेशान होते हैं यह हम समझ सकते हैं। क्या इन्हें दूर करने के लिए हम मानसिक गुलामों को ब्रिटेन की अनुमति चाहिए ?
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4 / हिंदी व क्षेत्रीय भाषाएं बोलने पर सजा देने वाली शिक्षण संस्थाएं हजारों में हैं। लगभग 25 वर्ष पूर्व की घटना है दिल्ली के एक 12 वर्षीय छात्र अमिताभ शाह को हिंदी फिल्म के गीत गाने पर सभी छात्रों के बीच इतनी कठोर सजा दी गई कि घर पहुँचकर उसने आत्महत्या कर ली। आश्चर्य तो ये है कि स्कूल प्रशासन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। क्योंकि जिन्हें कार्यवाही करनी चाहिए उन्हीं के बच्चे ऐसे स्कूलों के छात्र थे। केरल में मलयालम बोलने पर 5 स्कूली छात्रों को कठोर सजा दी गई, यह अगस्त 2011 की घटना है। अब तो देश के छोटे बड़े शहरों और छत्तीसगढ़ में भी ऐसे स्कूल पनपने लगे हैं। इन शिक्षण संस्थाओं को पहले कठोर चेतावनी दी जाए फिर भी न मानें तो संस्था की मान्यता निरस्त कर देनी चाहिए। दूसरे दिन से ही ये स्कूल कालेज सुधर जायेंगे। इन अंग्रेजी पूजकों से पूछिए क्या वे राष्ट्रगीत गाते हैं या उसका अंग्रेजी अनुवाद।
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5 / हिंदी में सारे कामकाज अनिवार्य रूप से करने का निर्णय जिस दिन संसद ले लेगी उसी दिन से अंग्रेजी पिछड़ने लगेगी और अंग्रेजी में सपने देखने वाले भी स्वयं को बदलने मजबूर हो जायेंगे। राज्य सरकारों को यह अधिकार प्राप्त है पर वे समुचित उपयोग नहीं करतीं। नौकरशाह प्रायः अंग्रेजी परस्त ही होते हैं इसलिए हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को सरकारी काम काज और शिक्षा के स्तर पर कठोरता से लागू करने में सबसे बड़े बाधक बनते हैं।
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6 / पाठकों की जानकारी हेतु बता दूं कि पूरे विश्व की मात्र 7 प्रतिशत आबादी ही अंग्रेजी बोलती है। ब्रिटेन को छोड़कर यूरोप के अन्य देश बड़े गर्व से अपनी भाषा बोलते हैं, अंग्रेजी नहीं। चीन, जापान, कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, रूस सभी स्वाभिमानी देश अपनी भाषा में बात करते समय नाक भौं नहीं सिकोड़ते। आजादी के बाद हमारा पडोसी देश सीलोन से श्रीलंका हो गया, बर्मा- म्यांमार और रोडेशिया -जिम्बाब्वे बन गया पर हम इंडिया शब्द अब तक छोड़ नहीं पाए। क्या स्वाभिमान के मामले में भारत इन छोटे राज्यों से भी गया गुजरा है। अंग्रेजी बोलकर नाक ऊँची रखने वाले काले अंग्रेजों को कौन समझाए कि नाक का संबंध स्वाभिमान ( स्व पर अभिमान ) से है। इन काले अंग्रेजो के पास अपना है क्या जिस पर गर्व करें, भाषा संस्कृति सब कुछ तो नकल का है। ऊँची नाक अपनी भाषा और संस्कृति से नफरत करने वालों के पास नहीं होती। हम सब को इस बात का गर्व है कि भारत के 99 प्रतिशत लोग स्वाभिमानी हैं एवं उनकी नाक अभी सलामत है और आगे भी रहेगी और वही सच्चे भारतीय भी हैं। अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और सच्चे देश भक्त बार-बार कहते हैं कि हमारी लड़ाई इन्हीं काले अंग्रजों से है जो शासन प्रशासन और सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हैं। अर्थात 99 प्रतिशत आम भारतीय की लड़ाई 1 प्रतिशत ताकतवरों से है इसलिए बदलाव धीरे- धीरे होगा पर होगा जरूर।
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अनुरोध-- ओ बी ओ के सभी सदस्य मिलकर पूरा सितम्बर मास “ राज-भाषा मास ” के रूप में मनायें। हम सब हिंदी मे "" ही " " हस्ताक्षर करने का संकल्प लें तो यह दिन सफल हो जाएगा।"
मौलिक / अप्रकाशित
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आलेख पसंद आया , मेरा प्रयास सफल हुआ। ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े , लोगों में जागरुकता पैदा हो, हिंदी और अपनी मातृ भाषा के प्रति प्रेम व सम्मान बढ़े यही तो हम सब का उद्देश्य है। अभिनव अरुणजी आपने कुछ अच्छे उदाहरण दिए काले अंग्रेजों की । धन्यवाद। एक और मजेदार बात --- उच्च और उच्च मध्यम वर्ग की लड़कियों / महिलाओं में यह बात भर दी गई है कि कोई '" सेक्सी " कहे तो नाराज नहीं होना है उसे मुस्कान के साथ धन्यवाद कहना है, यही आधुनिक सभ्यता है।
शकूर भाई , आलेख पसंद आया , मेरा प्रयास सफल हुआ। ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े , लोगों में जागरुकता पैदा हो, हिंदी और अपनी मातृ भाषा के प्रति प्रेम व सम्मान बढ़े यही तो हम सब का उद्देश्य है। सादर, ।
छोटे भाई , आलेख पसंद आया , मेरा प्रयास सफल हुआ।
जन सामान्य और कथित बौद्धिक वर्ग में देवनागरी को लेकर जो गांठें हैं वे दुःख देती हैं ख़ास तौर से हम हिंदी जीवियों को । कई लोग मिलते हैं जो गर्व से कहते हैं ''सर सरसठ किसको कहते हैं ? या sir , you know i was educated in convent school so can't write - speak hindi like you ...sorry !!
आपका आलेख इस दिशा में जागरूकता उत्पन्न करे यही कामना है साधुवाद !!
आदरणीय अखिलेश सर आपने बहुत अच्छी बात कही है, हम में से कई अभी तक झूठी शान या कहूँ गुलाम मानसिकता से बाहर नहीं आ सके हैं, इस लेख के लिये आपको बधाई
आदरणीय बडे भाई , उपर लिखी एक एक बात सच है ,बहुत बधाई !!! जरूरत है एक सामोहिक जगरूकता की जो अब धीरे धीरे आती दिख रही है !! और ज़रूरत है अपनी भाषा के प्रति सम्मान की !! अपनी भाषा मे बोलने को बड़्प्पन की नज़र से देखने की !!
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