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ग़ज़ल : जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के

बह्र -- रमल मुसद्दस महजूफ

२१२२, २१२२, २१२

मैं पपीहा प्यास में मरता रहा,
स्वाति मुझको जानकर छलता रहा,

सर्द गर्मी धूप हो या छाँव हो,
कारवां चलता चला चलता रहा,

श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,
देवता होकर सदा जलता रहा,

धूल लेकर चल रहीं थी आंधियां,
आँख मैं मलता चला मलता रहा,

बात मन की मन ही मन में रह गई,
दर्द भीतर रोग बन पलता रहा,

जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के,
वक़्त मुझको वो बड़ा खलता रहा...

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 3:05pm

आदरणीय गिरिराज सर जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका, चला की जगह रहा ही लिखा था मैंने अंतिम समय में परिवर्तित कर दिया सोचा कोई अलग शब्द इस्तमाल करता हूँ रहा हो जम ही रहा है चला करता हूँ इसी वजह से चला कर दिया.

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 3:03pm

हार्दिक आभार आदरणीय आशुतोष सर जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 3:03pm

हार्दिक आभार आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by saalim sheikh on September 18, 2013 at 3:02pm

वाह! बहुत सुंदर रचना, बधाई स्वीकरें आदरणीय अरुण जी
आदरणीय गिरिराज जी की बात क़ाबिले ग़ौर है,यही बात मेरे ज़हन में भी आई थी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2013 at 2:21pm

आदरणीय अरुण भाई बढ़िया गज़ल हुई है भाई !! बहुत बधाई !!

बात मन की मन ही मन में रह गई,
दर्द भीतर रोग बन पलता चला, -------------------- इस शेर के लिये विशेष दाद क़ुबूल करें !!     चला की जगह रहा शब्द कैसा रहता ?

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 18, 2013 at 2:11pm

श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,
देवता होकर सदा जलता चला,...अरुण जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के इस शेर ने मन मोह लिया ...सादर बधाई के साथ 

Comment by annapurna bajpai on September 18, 2013 at 2:02pm
बात मन की मन ही मन में रह गई,
दर्द भीतर रोग बन पलता चला,

जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के,
वक़्त मुझको वो बड़ा खलता चला...
आ0 अरुण जी सुंदर अति सुंदर गजल के लिए आपको बधाई ।

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