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दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा ( गज़ल - गिरिराज भंडारी )

212    212    212     212 

.

छांव में धूप का क्यों गुमाँ हो रहा

दर्द क्या इक नया फिर कोई बो रहा

 

सड़ चुकी मान्यता सांस फिर ले रही

दिन चढ़े तक कोई शख़्स ज्यों सो रहा  

 

ज़ाहिरन बात ये कह रहा है करम

बढ़ गया पाप जब तो कोई धो रहा

 

हाल की शक्ल में फ़र्क़ कुछ तो रहे

कल गया बीत वो जो रहा सो रहा

 

पश्चिमी कुछ हवा सभ्यता खा रही

आदमी इसलिये आदमी खो रहा

 

तितलियाँ ख़ौफ़ से उड़ नही पा रहीं

वाक़िआ कुछ बुरा रोज़ ही हो रहा

 

रोशनी भी कहीं दिख रही है मगर

अब्र भी कुछ घना उस तरफ हो रहा

 

    मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 30, 2013 at 6:32pm

आदरणीय सौरभ भाई , गज़ल की सराहना के लिये और हौसला अफज़ाई के लिये आपका बहुत बहुत आभार !!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 27, 2013 at 11:17pm

सारे अशार एक ओर आखिरी शेर एक ओर.

बधाई स्वीकारें आदरणीय .. अंदाज़ भा गया .. वाह


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 5:12pm

आदरणीय वीनस भाई , आपका बहुत बहुत शुक्रिया , आपकी बात पूरी तरह समझ आ गई !! त्वरित समाधान के लिये आपको पुनः धन्यवाद !!

Comment by वीनस केसरी on September 26, 2013 at 4:52pm

वुस्अत - विस्तार, सामर्थ्य

इस ग़ज़ल में रदीफ काफिया की बंदिश के कारण शाइर अपनी बात को कहने के लिए एक सीमित दायरे में बांध गया है फिर भी ग़ज़ल को बखूबी निभाया गया है 
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 1:17pm

आदरणीय वीनस भाई , आपके हर शब्द मेरे लिये अमूल्य हैं , सराहना के लिये बहुत बहुत शुक्रिया !! आदरणीय गज़ल के लिहाज़ से वुसुअत धटाना किसे कहेंगे , अगर सम्भव हो तो ज़रूर बतायें , ताकि आगे से इसका भी खयाल रख सकें !! आपका बहुत बहुत शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 1:11pm

आ दरणीय चन्द्र शेखर भाई , हौसला अफज़ाई के लिये शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 1:11pm

आदरणीय बड़े भाई अखिलेश  , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!

Comment by वीनस केसरी on September 26, 2013 at 2:24am

बढ़िया ग़ज़ल हुई है
रदीफ काफिया की बंदिश वुसअत को घटा रही है मगर आपने अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी है 
तहे दिल से दाद कुबूल फरमाएं

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on September 25, 2013 at 2:15pm

सुन्दर मुद्दे उठाती हूई ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 24, 2013 at 9:52pm

पश्चिमी कुछ हवा सभ्यता खा रही

आदमी इसलिये आदमी खो रहा .... ( इंसानियत खो रहा )

अच्छी गज़ल की बधाई ।

 

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