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ये भी एक सच है- अतुकांत -( गिरिराज भंडारी )

ये भी एक सच है

***************

जितना फैलायेंगे,

अपने अपने अहम को

ये भी और वो भी,

सब मेरा, इस वहम को

उतना ही उलझेंगे

औरों के अहम जालों से

अपने भीतरी कशमकश से

और बाहरी सवालों से 

कुछ तो क़ीमत है

मैने देखा है, बिकते हुये

लटकते हुये मुर्दा बकरे

बकरों के सिर 

और देखा है 

इंसानों की रगों में

जमता हुआ रुधिर

और सिर्फ जलते, खाक होते

इंसानी सिर !!!

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 27, 2013 at 7:18pm

आदरणीय राम भाई , सरहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!

Comment by ram shiromani pathak on September 27, 2013 at 5:12pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय गिरिराज जी //आपको बहुत बहुत बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 1:08pm

आदरणीया गीतिका जी , हौसला अफज़ाई के लिये बह्त बहुत शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 26, 2013 at 1:07pm

आदरनीय जितेन्द्र भाई , रचना की सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!

Comment by वेदिका on September 26, 2013 at 12:02am

बढ़िया रचना, सुंदर कथ्य, धारा प्रवाह रचना!!  

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 25, 2013 at 11:50pm

बहुत सुंदर भावनात्मक रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराज जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 9:13pm

वाह !!! बड़े भाई आदरणीय विजय जी, पुनः हौसला अफज़ाई के लिये आपका शुक्रिया !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 9:11pm

आ0 सन्दीप भाई हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 9:10pm

आदरणीय अनुराग भाई , रचना की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार !

Comment by vijay nikore on September 25, 2013 at 7:43pm

प्रतिक्रिया पहले दे चुका था ... अब पुन: पढ़ी .... और निम्न अभिव्यक्ति को दाद देता हूँ...

 

//और देखा है 

इंसानों की रगों में

जमता हुआ रुधिर//


सादर,

विजय निकोर

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