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ये भी एक सच है- अतुकांत -( गिरिराज भंडारी )

ये भी एक सच है

***************

जितना फैलायेंगे,

अपने अपने अहम को

ये भी और वो भी,

सब मेरा, इस वहम को

उतना ही उलझेंगे

औरों के अहम जालों से

अपने भीतरी कशमकश से

और बाहरी सवालों से 

कुछ तो क़ीमत है

मैने देखा है, बिकते हुये

लटकते हुये मुर्दा बकरे

बकरों के सिर 

और देखा है 

इंसानों की रगों में

जमता हुआ रुधिर

और सिर्फ जलते, खाक होते

इंसानी सिर !!!

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 6:22am

आदरणीय अभिनव भाई , रचना की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुर बहुत आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 6:20am

आदरणीय रमेश भाई , दोहे मे रचना की सराहना से मन प्रसन्न हो गया !! सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 25, 2013 at 6:18am

आदरणीय बैद्य नाथ भाई , रचना की सराहना के लिये आपका आभार , ऐसे ही स्नेह बनाये रखें !!

Comment by Abhinav Arun on September 25, 2013 at 6:06am

विचारपरक इस रचना के लिए हार्दिक साधुवाद श्री गिरिराज जी .

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 24, 2013 at 11:05pm

बेतुकी  इस कविता के, तुक सभी है भाये  ।

धरे ध्यान जो तनिक, मानव मानव हो जाये ।।

आदरणीय गिरिराजजी कोटिश बधाई ।

Comment by Saarthi Baidyanath on September 24, 2013 at 10:47pm

कुछ तो क़ीमत है

मैने देखा है, बिकते हुये

लटकते हुये मुर्दा बकरे

बकरों के सिर 

:
और देखा है 

इंसानों की रगों में

जमता हुआ रुधिर

और सिर्फ जलते, खाक होते

इंसानी सिर !!!

अत्यंत सारगर्भित सत्य को रेखांकित किया है आपने ...! क्या कहने ...वाह :)

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