ये भी एक सच है
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जितना फैलायेंगे,
अपने अपने अहम को
ये भी और वो भी,
सब मेरा, इस वहम को
उतना ही उलझेंगे
औरों के अहम जालों से
अपने भीतरी कशमकश से
और बाहरी सवालों से
कुछ तो क़ीमत है
मैने देखा है, बिकते हुये
लटकते हुये मुर्दा बकरे
बकरों के सिर
और देखा है
इंसानों की रगों में
जमता हुआ रुधिर
और सिर्फ जलते, खाक होते
इंसानी सिर !!!
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अभिनव भाई , रचना की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुर बहुत आभार !!
आदरणीय रमेश भाई , दोहे मे रचना की सराहना से मन प्रसन्न हो गया !! सराहना के लिये आपका बहुत आभार !!
आदरणीय बैद्य नाथ भाई , रचना की सराहना के लिये आपका आभार , ऐसे ही स्नेह बनाये रखें !!
विचारपरक इस रचना के लिए हार्दिक साधुवाद श्री गिरिराज जी .
बेतुकी इस कविता के, तुक सभी है भाये ।
धरे ध्यान जो तनिक, मानव मानव हो जाये ।।
आदरणीय गिरिराजजी कोटिश बधाई ।
कुछ तो क़ीमत है
मैने देखा है, बिकते हुये
लटकते हुये मुर्दा बकरे
बकरों के सिर
:
और देखा है
इंसानों की रगों में
जमता हुआ रुधिर
और सिर्फ जलते, खाक होते
इंसानी सिर !!!
अत्यंत सारगर्भित सत्य को रेखांकित किया है आपने ...! क्या कहने ...वाह :)
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