ग़ज़ल
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मयकशी मयकशी नहीं लगती !
रौशनी रौशनी नहीं लगती !!
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अब इबादत में दिल नहीं लगता !
बन्दगी बन्दगी नहीं लगती !!
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हर तरफ भीड़ और मैं तनहा!
बेबसी बेबसी नहीं लगती !!
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दिल में रखते हैं वोह तो दिल कितने !
आशिकी आशिकी नहीं लगती !!
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गुफ़्तगू आप से करें कैसे !
आपको तो कमी नहीं लगती
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हैं खफा वोह अगर खफा हम है !
दोसती दोसती नहीं लगती !!
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चाँद तारों के साथ चलता हूँ !
तो सफर में कमी नहीं लगती !!
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साँस लेता हूँ अब हवा के लिए ,
ख़ुदकुशी ख़ुदकुशी नहीं लगती !!
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राज लाली शर्मा (बटाला)
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आभारी हूँ आदरणीय अन्नापुर्ण जी
आभारी हूँ अरुण भाई , सीखता हूँ रोज़ कुछ न कुछ और ख़ुशी होती है !
आपका शुक्रगुजार हूँ , ऐसे ही बताते रहिये और मार्गदर्शन करते रहिये !
आभारी हूँ शकूर जी !!
आभारी हूँ वीनस जी !! आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है !!
अच्छा लगता है , आप ग़ज़ल को एक नयी दिशा
प्रदान क्र रहे हैं !!
आभारी हूँ अरुण भाई जी !! अच्छा लगा जो आपको पसंद आई !
आभारी हूँ आदर्णीय गीतिका जी
आभारी हूँ आदर्णीय राजेश कुमारी जी
आभारी हूँ गिरिराज जी !! हिम्मत बड़ाने के लिए शुक्रिया !!
बहुत ही खूबसूरत गजल कही आपने , बहुत बधाई आपको आ0 लाली जी ।
बेहद शानदार ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर पसंद आया दिली दाद कुबूल फरमाएं.
गुफ़्तगू हम से अब नहीं होगी ,
आपको भी कमी नहीं लगती !! .. इस शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष है शायद आप भी देख लीजियेगा.
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