जन्मा-अजन्मा के भेद से परे
एक सत्य- माँ!
तुम ही तो हो
जिसने गढ़ी
ये देह, भाव, विचार,
शब्द!
रूप-अरूप-कुरूप में
झूलती देह
गल ही जाएगी
भाव, विचार
थिर ही जायेंगे
अभिव्यक्ति को तरसते
स्वप्न-चित्र
तिरोहित हो जायेंगे
फिर भी चाहना के
उथले-छिछले जल में
डूबते-उतराते
बहक ही जाते हैं
उस राह पर
जिसके दोनों तरफ हैं ठूंठ
बरसात और धूप में
मुँह बिराते
यह राह खो जाती है
दूर क्षितिज में
जहाँ से रोज़
उगता और अस्त होता है
सूर्य
इस राह से परे
पगडंडियों के छोर पर
मंदिर की घंटियाँ
निशब्द हैं
माँ! शब्द दो!
अर्थ दो!
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! मेरा प्रयास आपको सार्थक लगा, इस बात ने मुझे ऊर्जा दी है!
सादर!
आदरणीया महिमा जी आपका हार्दिक आभार!
भौतिक आधार की आवश्यकता भले समाप्त हो जाये, एक व्यक्ति को वैचारिक आधार की आजीवन आवश्यकता बनी रहती है. वह विचार-प्रदाता इकाई चाहे कोई हो, जबतक माँ की संप्रभूता को अंगीकार कर स्वीकार्य न हो जाय और संतुष्ट न कर दे, देर तक साथ बनी नहीं रह सकती. भ्रम और उलझाव में जीते मनुष्य की भावदशा और सोच को जीती यह कविता अचानक संयत हो जाती है जब आत्मविश्वास की कौंध के साथ जीवन के अर्थ को पाने को आग्रही हो जाती है.
अत्यंत सशक्त और सार्थक बिम्बों से कविता ने बहुत कहा है. इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं.
बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
बेहद ह्रदयस्पर्शी प्रस्तुती आदरणीय ब्रिजेश जी बधाई स्वीकार करें
आदरणीय विजय जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राम भाई, आपका हार्दिक आभार! रचना आपको पसंद आई, ये मेरे लिए पुरुस्कार समान है!
आदरणीय बैद्य नाथ जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय अरुण भाई जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
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