ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!
तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!
इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!
धवल रंग की रोशनी, जगत रही है सींच!
परछाईं सब हैं छिपी, जा सरपत के बीच!!
हौले-हौले बह रही, देखो मंद बयार!
रोम-रोम पुलकित हुआ, कण-कण में है प्यार!!
देख छटा पिय-चाँद की, हुलसत मनस-चकोर!
बार-बार मन मिलन को, उमगत है उस ओर!!
बागों में चंपा खिला, भ्रमर रहे मंडराय!
रूप निहारे दूर से, पास नहीं वह जाय!!
चकई से होकर जुदा, चकवा करे विलाप!
इत-उत खोजत वह फिरे, बची न आस-मिलाप!!
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!
ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!
तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!
इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!सुंदर ..दोहावली ..आदरणीय ..बधाई
आदरणीय बृजेश जी.... बहुत ही सुंदर दोहे बन पड़े हैं.... विषय को पूर्णत: सार्थक करते हुए.... बधाई स्वीकारें...
आदरणीय नीरज सभी दोहे बहुत ही अच्छे लग रहे है । प्रकृति वर्णन मानवीय प्रेम सा क्या सुंदर प्रयोग है आपके दोहे मे । बधाई आदरणीय बधाई
आदरणीय बागी जी, आपका हार्दिक आभार! आपके अनुमोदन ने हिम्मत बंधाई!
सादर!
बृजेश भाई सभी दोहें अच्छे लगे, भाव और शिल्प का बेहतरीन संगम हुआ है, बधाई स्वीकारें ।
आदरणीय अखिलेश जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय अनुराग जी आपका हार्दिक आभार!
चांदनी रात और प्रकृति का सुंदर चित्रण , हार्दिक बधाई बृजेश भाई।
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