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ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!

गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!

 

तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!

इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!

 

धवल रंग की रोशनी, जगत रही है सींच!

परछाईं सब हैं छिपी, जा सरपत के बीच!!

 

हौले-हौले बह रही, देखो मंद बयार!

रोम-रोम पुलकित हुआ, कण-कण में है प्यार!!

 

देख छटा पिय-चाँद की, हुलसत मनस-चकोर!

बार-बार मन मिलन को, उमगत है उस ओर!!

 

बागों में चंपा खिला, भ्रमर रहे मंडराय!

रूप निहारे दूर से, पास नहीं वह जाय!!

 

चकई से होकर जुदा, चकवा करे विलाप!

इत-उत खोजत वह फिरे, बची न आस-मिलाप!!

                  - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

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Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 9:12pm

आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by MAHIMA SHREE on October 2, 2013 at 8:59pm

ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!

गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!

 

तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!

इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!सुंदर ..दोहावली ..आदरणीय ..बधाई

Comment by Sushil.Joshi on October 2, 2013 at 8:49pm

आदरणीय बृजेश जी.... बहुत ही सुंदर दोहे बन पड़े हैं.... विषय को पूर्णत: सार्थक करते हुए.... बधाई स्वीकारें...

Comment by रमेश कुमार चौहान on October 2, 2013 at 7:51pm

आदरणीय नीरज सभी दोहे बहुत ही अच्छे लग रहे है । प्रकृति वर्णन मानवीय प्रेम सा क्या सुंदर प्रयोग है आपके दोहे मे । बधाई आदरणीय बधाई

Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 5:08pm

आदरणीय बागी जी, आपका हार्दिक आभार! आपके अनुमोदन ने हिम्मत बंधाई!

सादर!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 2, 2013 at 5:01pm

बृजेश भाई सभी दोहें अच्छे लगे, भाव और शिल्प का बेहतरीन संगम हुआ है, बधाई स्वीकारें । 

Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 4:43pm

आदरणीय अखिलेश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 4:43pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 4:43pm

आदरणीय अनुराग जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 2, 2013 at 3:40pm

चांदनी रात और प्रकृति का सुंदर चित्रण , हार्दिक बधाई बृजेश भाई।

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