गाँव बसे कैसे भला ,करते बंदरबांट !
कम्बल तो देते मगर ,लूट लिये सब खाट !!१
हंस देखता रह गया ,बगुले के सर ताज !
गीदड़ अब राजा बना ,गीदड़ सिंह समाज !!२
आदि अंत सब हैं वही ,उनका ही संसार !
वो मिटटी के तन गढ़े ,कितने कुशल कुम्हार !!३
धन की चंचल चाल का ,फैला है भ्रमजाल !
जो पाते वो भी विकल ,बिन पाए बेहाल !!४
पर पीड़ा दिखती नहीं, ऐसे कैसे लोग!
दीमक जैसा खा रहा ,लालच नामक रोग !!५
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
गाँव बसे कैसे भला ,करते बंदरबांट !
कम्बल तो देते मगर ,लूट लिये सब खाट !!१ बहुत सुन्दर समसामयिक दोहा
हंस देखता रह गया ,बगुले के सर ताज !
गीदड़ अब राजा बना ,गीदड़ सिंह समाज !!२ क्या कहने भाई बहुत सुन्दर कटाक्ष
आदि अंत सब हैं वही ,उनका ही संसार !
वो मिटटी के तन गढ़े ,कितने कुशल कुम्हार !!३ अत्यंत सुन्दर दोहा वाह (चतुर्थ चरण में 12 मात्राएँ हो रही हैं अनुज, गढ़े या गढ़ें)
धन की चंचल चाल का ,फैला है भ्रमजाल !
जो पाते वो भी विकल ,बिन पाए बेहाल !!४ बहुत ही बढ़िया और स्पष्ट हो सकता है
पर पीड़ा दिखती नहीं, ऐसे कैसे लोग!
दीमक जैसा खा रहा ,लालच नामक रोग !!५ बहुत खूब बहुत बहुत प्रथम चरण का पर पीड़ा का अर्थ पराई पीड़ा से है आपका देखिये कुछ और हो सकता है क्या तनिक अधिक स्पष्ट हो जाए.
अनुज राम शिरोमणि पाठक जी बहुत ही सुन्दर दोहे रचे हैं भाई आपने इस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
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