बह्रे रमल मुसम्मन सालिम(2122 2122 2122 2122)
संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता
ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता
तूने ऐ जज़्बा-ए-दिल मुझको सँवारा ही न होता
आइने में लफ़्ज़ के तुझको उतारा ही न होता
रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे वुसअत= व्यापकता
गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता
रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी
चाँद की जो बज़्म में कोई सितारा ही न होता
इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं मा'बूद =जिसकी इबादत की जाये
सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया डॉ प्राची जी आपका आभार जो आपने मेरी रचना को मान दिया
भाई आशीष जी हौसला अफ़्ज़ाई के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
हार्दिक बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर आ० शिज्जू जी
संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता
ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता ||
वाह, क्या बात है...
बढ़िया ग़ज़ल भाई Shijju Shakoor जी !!
आदरणीय बृजेश जी आपका आभार
भाई सचिन जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
भाई जितेन्द्र जी आपका आभार
आदरणीया कुन्ती जी रचना के अनुमोदन के लिये आपका आभार
आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय वीनसजी रचना के अनुमोदन के लिये आपका शुक्रगुज़ार हूँ स्नेह बनाये रखें
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