For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गजल: याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना//शकील जमशेदपुरी//

बह्र— 2122/2122/2122/22

थाम के कांधे को हाथों में कलाई देना
याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना

प्यार ने जिसके बना डाला है काफिर मुझको
ऐ खुदा उनको जमाने की खुदाई देना

तरबियत आंसू की कुछ ऐसे किया है हमने
अब तो मुश्किल है मेरे गम का दिखाई देना

याद आती है जुदाई की घड़ी जब हमको
तो शुरू होता है चीखों का सुनाई देना

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे
काम आया मेरे अश्कों का सफाई देना

जब भी रूठा हूं मनाती है वो ऐसे मुझको
रोते बच्चे को किसी मां का मिठाई देना

हाल इसने यूं बना रक्खा है बंदी की तरह
कैद से अपने मेरे दिल को रिहाई देना

-शकील जमशेदपुरी

___________________________

*मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 998

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 13, 2013 at 5:26pm

ग़ज़ल पर पुनः आने के बाद एक शे'र में कमी लगी ग़ज़ल में दोष है.

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे
काम आया मेरे अश्कों की गवाही देना .. इसके काफिया में यदि ई निकाल दें तो गवाह बचेगा जबकि अन्य काफिये में ऐसा नहीं हो रहा है.

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 5:26pm

दुरुस्त फरमाया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी.......इस्लाह के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 5:21pm

आदरणीय . काफिया ---- कलाई , सुनाई , खुदाई मे आ ई निभाई गई है के वल नही है !!!! सादर !!!!

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 5:14pm

आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी
लिखते वक्त मेरे मन में भी दुविधा थी। पर चूंकि ई की मात्रा निभ रही थी, इसलिए मुझे लगा कि ये सही हो। अगर इसमें कोई बारीकी हो तो मुझे जानकारी नहीं है। आपसे निवेदन है कि अगर आप इस्लाह कर सकें तो आभारी रहूंगा।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 13, 2013 at 5:02pm

बिन तेरे खुश रहने का इल्जाम था सिर मेरे 
काम आया मेरे अश्कों की गवाही देना...आदरणीय बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ..जिज्ञासा बस एक बात थी  काफिया में ई है पर इस शेर में ही का प्रयोग हुआ है ..अंत में ई ई आ रहा है सही भी लग रहा है ...लेकिन मन दुबिधा में है ..सादर बधाई के साथ 

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 4:40pm

आदरणीय अरुन शर्मा 'अनन्त' साहब

आपको गजल पसंद आया इसके लिए आभार आपका। यदि शिल्प के स्तर पर कहीं कोई कमी हो तो कृप्या इस ओर जरूर ध्यान आकृष्ट कराएं। सादर।

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 13, 2013 at 4:35pm

आदरणीय शकील भाई बेहतरीन ग़ज़ल हुई है सभी अशआर पसंद आये खास इस शेर हेतु विशेषतौर से दाद कुबूल फरमाएं.

जब भी रूठा हूं मनाती है वो ऐसे मुझको
रोते बच्चे को किसी मां का मिठाई देना वाह वाह

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 4:00pm

आभार आपका आदरणीय गिरिराज भंडारी जी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 3:58pm

आदरणीय शकील भाई , लाजवाब गज़ल कही है !!!! वाह वाह !!!! मतला भी बहुत शानदार है !!

थाम के कांधे को हाथों में कलाई देना
याद आता है वो धड़कन का सुनाई देना ---------- ढेरों दाद कुबूल करें !!!

Comment by शकील समर on October 13, 2013 at 3:26pm

आपको अशआर पसंद आए इसके लिए बहुत—बहुत आभार आपका आदरणीय अभिनव अरुण सर। कृपा दृष्टि बनाए रखिएगा।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ सर, गाली की रदीफ और ये काफिया। क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस शानदार प्रस्तुति हेतु…"
3 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .इसरार

दोहा पंचक. . . .  इसरारलब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आयोजन में सहभागिता को प्राथमिकता देते…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरना जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। प्रदत्त विषय को सार्थक करती बहुत…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त विषय अनुरूप इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। गीत के स्थायी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी भाव-विह्वल करती प्रस्तुति ने नम कर दिया. यह सच है, संततियों की अस्मिता…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आधुनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में माता के दायित्व और उसके ममत्व का बखान प्रस्तुत रचना में ऊभर करा…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय मिथिलेश भाई, पटल के आयोजनों में आपकी शारद सहभागिता सदा ही प्रभावी हुआ करती…"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ   .... बताओ नतुम कहाँ होमाँ दीवारों मेंस्याह रातों मेंअकेली बातों मेंआंसूओं…"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ की नहीं धरा कोई तुलना है  माँ तो माँ है, देवी होती है ! माँ जननी है सब कुछ देती…"
Saturday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका,…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service