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ग़ज़ल (४) : बताओ माँ, मेरी चादर कहाँ है !

कहाँ है कील, शर, नश्तर कहाँ है

मेरा काँटों भरा, बिस्तर कहाँ है//१

.

उठा के मार, मंदिर में पड़ा ‘वो’  

भला क्या पूछना, पत्थर कहाँ है//२

.

तभी सोंचू के, मैं क्यूँ उड़ रहा हूँ

अमीरों क़र्ज़ का, गट्ठर कहाँ है//३

.

लगे मय पी रहा है, आज वो भी

जहर पीता था, वो शंकर कहाँ है//४

.

बुराई झाँकती है, देख दिल से

छुपा उसको, तेरा अस्तर कहाँ है//५

.

सपोलें मारने से, कुछ न होगा 

चलो खोजें छिपा, अजगर कहाँ है//६

.

न तुम ढूंढो उसे, दैरो-हरम में 

कहोगे फिर, ख़ुदा घर पर कहाँ है//७ 

.

कुहासा बढ़ रहा है, फिर गली में

बताओ माँ, मेरी चादर कहाँ है//८

.

क़लम है ‘नाथ’ माँ है रौशनाई

कभी ढूँढा नहीं, दिलबर कहाँ है//९

.

"मौलिक व अप्रकाशित"

वज्न : कहाँ-12/है-2/कील-21/शर-2/नश्तर-22/कहाँ-12/है-2 [1222-1222-122]

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Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 18, 2013 at 2:23pm

बहुत बहुत शुक्रिया coontee mukerji जी तहे-दिल से शुक्रगुजार हूँ...आपका.....नमन 

Comment by coontee mukerji on October 18, 2013 at 1:12pm

कुहासा बढ़ रहा है, फिर गली में

बताओ माँ, मेरी चादर कहाँ है/......बहुत ही मार्मिक है.

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 18, 2013 at 12:18am

ज़नाब केसरी साहब...कुछ शे'र है...अच्छी लगे तो जरूर इत्तेला कीजियेगा...बुरी भी लगे तो...

निहत्था हूँ नहीं डर है के सच भी   

किसी हथियार से कमतर कहाँ है

........................................

जहाँ था दर्दे-दिल आबाद मेरा   

मेरे ज़ख्मों का वो खंडहर कहाँ है

..........................................

न जाड़े का न गर्मी का न लू का

ग़रीबी के बदन को डर कहाँ है

..........................................

हुए आज़ाद पर कुछ भी न बदला    

दिखाओ तुम नया मंजर कहाँ है 

...........................................

सही होने से इसे ग़ज़ल में पिरो दूंगा...नहीं तो पुनः प्रयास करूँगा....हार्दिक आभार.....!!!!!!!!

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 18, 2013 at 12:16am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ पाण्डेय साहब...आप महानुभावों की प्रतिक्रिया का हमेशा इंतज़ार रहता है..ताकि..कुछ सीख सकूं...बहुत फलदायी होता है मेरे लिए....चरण वंदन.....!!!..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 18, 2013 at 12:12am

उठा के मार, मंदिर में पड़ा ‘वो’  
भला क्या पूछना, पत्थर कहाँ है

सपोलें मारने से, कुछ न होगा
चलो खोजें छिपा, अजगर कहाँ है

कुहासा बढ़ रहा है, फिर गली में
बताओ माँ, मेरी चादर कहाँ है

इन तीन अश’आर के लिए दिली दाद कुबूल कीजिये, शोधार्थी साहब. मुझे आपका प्रयास संयत लगा.

शुभेच्छाएँ

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 17, 2013 at 10:53pm

पुन: आभार ज़नाब केसरी साहब...कोशिश करूँगा...जो अश'आर आपने चिन्हित किये है..उसको संशोधित कर पेश कर पाऊँ....कोशिश तो कर ही सकता हूँ...आप लोगों के स्नेह के लिए ऋणी हूँ........आभार...!!!!

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 17, 2013 at 10:33pm

बहुत बहुत शुक्रिया ज़नाब वीनस केसरी साहब....अभी सीख रहा हूँ...कोशिश रहेगी...ख़ुद के साथ-साथ आप जैसे महानुभावों को भी शे'र पसंद आये....हार्दिक नमन इस शुभेच्छा हेतु......सादर नमन !!!!!!  

Comment by वीनस केसरी on October 17, 2013 at 9:53pm

भाई क्या काफिया पैमाईश ही ग़ज़ल कहने का उद्देश्य है ...
अपना जो स्तर बना लिया हिया उसे बरकरार रखना भी आपकी जिम्मेदारी है
ये आपकी एक निहायत घटिया ग़ज़ल है जिसमें आपने सारे के सारे शेर भर्ती के हैं ...
इन अशआर में ग़ज़लियत का नमो निशाँ नहीं है

तभी सोंचू के, मैं क्यूँ उड़ रहा हूँ

अमीरों क़र्ज़ का, गट्ठर कहाँ है//३

.

लगे मय पी रहा है, आज वो भी

जहर पीता था, वो शंकर कहाँ है//४

.

बुराई झाँकती है, देख दिल से

छुपा उसको, तेरा अस्तर कहाँ है//५

.

सपोलें मारने से, कुछ न होगा 

चलो खोजें छिपा, अजगर कहाँ है//६

.

इस रचना को ग़ज़ल कहना ही गलत है ...  सब कुछ पोस्ट कर देने के लोभ से बाहर निकलिए .... एक बार आप पर हलकेपन का दाग लग गया तो वो जाते जाते जाएगा  

कुछ अधिक कह गया,, आशा करता हूँ आप इसे मेरा आप पर अधिकार समझ कर स्वीकार करेंगे
सादर

Comment by बृजेश नीरज on October 17, 2013 at 6:33pm

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल भाई जी! आपको बहुत बहुत बधाई!

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 17, 2013 at 4:38pm

बहुत बहुत शुक्रिया ज़नाब शकूर साहब, आ. अभिनव अरुण जी, परम आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब, भाई निलेश जी, श्री केवल प्रसाद जी, श्रीमान सुशील जोशी जी, श्री मोहन बेगोवाल साहब, आ. श्री अरुण कुमार निगम साहब, आदरणीया सरिता भाटिया जी...तहे-दिल से शुक्रगुजार हूँ..आप सभी महानुभावों के इस निश्छल स्नेहाशीष के लिए.....पुनश्च: नमन....!!!

महानुभावों से दिली गुजारिश है...अच्छा है तो मेरे लिए भी ख़ुशनसीबी है...लेकिन ख़ामियों की तरफ भी अगर इशारा हो तो ग़ज़ल और खूबसूरत बन जाए....नमन सहित......

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