जानता हूँ जगत मुझसे दूर होगा
पर तुम्हारे संग कुछ पल चाहता हूँ।
कठिन होगी यात्रा, राहें कँटीली,
व्यंजनायें मिलेंगी चुभती नुकीली,
कौन समझेगा हमारी वेदना को
नहीं देखेगा जगत ये आँख गीली,
प्यार अपना हम दुलारेंगे अकेले
बस तुम्हारे साथ का बल चाहता हूँ।
स्वप्न देखूँ कब रहा अधिकार मेरा
रीतियों में था बँधा संसार मेरा,
आज मन जब खोलना पर चाहता है
गगन को उड़ना नहीं स्वीकार मेरा,
भर चुके अपनी उड़ानें अभी सब जब,
मैं स्वयं का इक नया कल चाहता हूँ।
सभी अपने भाग्य का लेखा निभाते,
किसे सच्चा या किसे दोषी बताते,
नियति का है खेल इसको कौन समझे,
द्वंद में ही उलझ कर रह गये नाते,
है भला अपराध क्यों जो साँझ बेला
में अगर विश्राम-आँचल चाहता हूँ ।
मौलिक व अप्रकाशित
मानोशी
Comment
स्वप्न देखूँ कब रहा अधिकार मेरा
रीतियों में था बँधा संसार मेरा,
आज मन जब खोलना पर चाहता है
गगन को उड़ना नहीं स्वीकार मेरा,
... अति सुन्दर सशक्त भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई आ. मानोशी जी !
wah wah wah gambhir , hridayasparshi, marmik chitra kheenche hain apne ...जानता हूँ जगत मुझसे दूर होगा
पर तुम्हारे संग कुछ पल चाहता हूँ ।..........apne ik geet ki yaad aa gayi ....."tum bhi ho chup chup mai bhi ho maun ,jane fir bol raha kaun"
स्वप्न देखूँ कब रहा अधिकार मेरा
रीतियों में था बँधा संसार मेरा,
आज मन जब खोलना पर चाहता है
गगन को उड़ना नहीं स्वीकार मेरा............................ बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ , बहुत बधाई आपको आ0 मनोशी जी ।
आदरणीया मनोशी जी , बहुत सुन्दर गीत की रचना के है आपने , सामाजिक मज़बूरियाँ , आंतरिक बेबेसी का बहुत सुन्दर चित्रण किया है !!!! आपको बधाई !!!
मनोशीजी सुंदर गीत , बहुत बधाई ।
सभी अपने भाग्य का लेखा निभाते,
किसे सच्चा या किसे दोषी बताते,
नियति का है खेल इसको कौन समझे,
द्वंद में ही उलझ कर रह गये नाते,............बहुत उम्दा | बधाई आप को आदरणीय
सादर
कठिन होगी यात्रा, राहें कँटीली,
व्यंजनायें मिलेंगी चुभती नुकीली,
कौन समझेगा हमारी वेदना को
नहीं देखेगा जगत ये आँख गीली, आदरणीय मनोसी जी आपके इस सुंदर गीत की ये पंक्तिया मुझे बेहद भाईं ...मेरी तरफ से ढेरों बढ़ाईं कबूलें सादर
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