दीप हमने सजाये घर-द्वार हैं
फिर भी संचित अँधेरा होता रहा
मन अयोध्या बना व्याकुल सा सदा
तन ये लंका हुआ बस छलता रहा
राम को तो सदा ही वनवास है
मंथरा की कुटिलता जीती जहाँ
भाव दशरथ दिखे बस लाचार से
खेल आसक्ति ऐसी खेले यहाँ
लोभ धर रूप कितने सम्मुख खड़ा
दंभ रावण के जैसा बढ़ता रहा
धुंध यूँ वासना की छाने लगी
मन में भ्रम इक पला, सीता को ठगा
नेह के बंध बिखरे, कमजोर हैं
सब्र शबरी का देता है अब दगा
अर्थ रिश्तों के आखिर बदलने लगे
शूल सुग्रीव के दिल में चुभता रहा
अर्थ जीवन को दें कुछ हम इस तरह
द्वेष अब ना रहे इस संसार में
रात काली अमावस की जो मिटे
सूर्य ऐसा उगे हर व्यवहार में
मन अयोध्या रहे तन हनुमान सा
भाव मन में यही बस पलता रहा
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय नीरजजी आपने मानवीय दुर्गुणों को अच्छे से रेखांकित किया है, सादर साधुवाद
अर्थ जीवन को दें .............बहुत सही बात कही है अपने आदरणीय भाई बृजेश जी। इस सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई व् साधुवाद ///सादर
अर्थ जीवन को दें कुछ हम इस तरह
द्वेष अब ना रहे इस संसार में
रात काली अमावस की जो मिटे
सूर्य ऐसा उगे हर व्यवहार में
बहुत ही सुंदर सार्थक, अपने अंतर्मन को निर्मल किये बिना, त्यौहार मनाना, निरर्थक है
रचना पर ढेरों बधाई आदरणीय बृजेश जी
दीपावली आने वाली है ! साफ़ सफाई करने का त्यौहार है तो आत्म मंथन का इससे उचित अवसर क्या होगा ! अपना अंतर को स्वच्छ करे पहले ! इसी सन्देश के साथ ये कविता आखिरी में कुछ मानक भी स्थापित कर जाती है ! बहुत सुन्दर सृजन आदरणीय !
मन अयोध्या रहे तन हनुमान सा॥ सचमुच ऐसा हो जाय यदि कोई सच्चा गुरु मिल जाय। सुंदर पंक्तियों की हार्दिक बधाई बृजेश भाई।
वाह उत्कृष्ट भाव सुन्दर रचना हार्दिक बधाई
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