स्वप्न विलक्षण:
स्मृतिओं की सुखद फुहारें
झिलमिलाती चाँदनी
की किरणों की झालरें
अनन्त तारिकाएँ
सपने में ... और सपने में साक्षात
तुम ... कब से
पूनों में, अमावस में, मध्य-रात्रि के सूने में
इस एक सपने से तुमने, मुझसे
रखा है अविरल अटूट संबंध
वरना स्मृति-पटल पर चन्द्र-किरण-सा
कभी प्रकाश-दीप-सा तैरता
यूँ लौट-लौट न आता ...
मेरे अधबनेपन का बिखराव
चेहरे पर अतीत का रुँधा हुआ उच्छवास
इस पर भी भावों का भावों से मेल ...
इतनी आत्मीयता ... सपने में ?
अभाव ? कैसा, किसका अभाव ?
तुम्हारा ? नहीं, कभी नहीं
ज़िन्दगी के तंग तहखानों से
गुज़रती कोई रोशनी, देखता हूँ
उद्दीप्त सपने में प्रज्ज्वलित
कल्पना की दीप्ति
प्रकाश-वर्षा-सी
तुम ... दीप्तिमान रत्न
उमड़ते स्नेह का मिठास आँखो में
मनमंदिर में तुम्हारे .. स्नेह-अक्षर
जैसे हँसते हुए फूलों के पराग-स्तर
प्रकाश-पर्व के बाद भी हर वर्ष
दो नयन तुम्हारे, दो नयन हमारे
यह अनमोल दिए मुस्कराते रहे
स्मृतिओं की सुखद फुहारें
सपने में ... सपने में तुम
कब से ...
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , स्वप्न मे ही जैसे तमाम रिश्ते को आपने जी लिया हो !!!!!!! बहुत सुन्दर भावों से ओत प्रोत आपकी रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!!!!
सुंदर भाव लिए अच्छी कविता , बधाई विजय भाई।
विजय निकोर जी , आपकी चोट बड़ी गहरी है I मगर आप धन्य है कि उसे मरहम बनाये हैं I जितने सुन्दर भाव उतना ही सुन्दर शब्द चयन I रश्क होता है भाई I आपको फिर फिर पढ़ना चाहूँगा I शुभ कामनाये I
आदरणीय विजय सर अच्छी कविता बधाई स्वीकार करें
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