देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम
और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'
-जिसे पहचानते हो तुम !
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा
एक अभिन्न को-
खामोश मन मंथन की गहराइयों में
चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में
पराचेतन की दिव्यता में.....
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
सघन भावों की अति सुंदर अभव्यक्ति हुई है, आदरणीया प्राची जी, हार्दिक बधाई आपको
यह प्रश्न शाश्वत है! आकांक्षाओं के मोह में जकड़े हम इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में ही जीवन को जीते चले जाते हैं. 'मैं' या 'तुम' की तलाश पूरी नहीं हो पाती.
बहुत ही सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!
व्यक्त और अव्यक्त का यही अंतर्द्वंद तो मानव जीवन का मूल व्यव्हार है ! परमानन्द कि प्राप्ति है इसे समझ पाना , इस व्यूह से निकल पाना ! कविताओं में "बुद्ध" की तरह कविता ! गहन और सूक्ष्म ! सुन्दर !
मैं, तुम और हम प्रत्येक मानव के अंदर है, किसे कब जागृत किया जाय यह व्यक्ति पर निर्भर करता है, साथ ही यही कारक व्यक्ति की पहचान भी बनते हैं, एक अच्छी कविता पर बधाई आदरणीया डॉ प्राची जी |
रचना आपको सार्थक लगी यह मेरे लिए संतोष की बात है आ० वन्दना जी
सादर आभार
रचना की अंतर्धारा भाव दशा व मर्म को स्पर्श करने के लिए हार्दिक आभार आ० शिज्जू जी
अभिव्यक्ति सन्निहित कथ्य की सार्थकता अनुमोदित करने के लिए हार्दिक आभार आ० संदीप पटेल जी
संशय , संदेह , शक्तियों- आसक्तियों की अबूझ वीथिकाओं में प्रवाहित जल सा ही तो है जीवन ...वश कहाँ ..विश्राम कहाँ ...पल भर ठहरे तो जाने उस ''तुम ''को ...गूढ़ रहस्य भाव को चेतना के स्तर पर उभरने और जागृत करने में सफल काव्य कृति के लिए बहुत बधाई आ. डॉ साहिबा !!
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में....... सचमुच यह प्रश्न विचारणीय है...... क्या सचमुच हम स्वयं को पहचान पाए हैं..... बहुत बहुत बधाई आ0 डॉ. प्राची जी इस लघु किंतु गहन प्रस्तुति हेतु....
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