वर्जना के टूटते
प्रतिबन्ध नें-
उन्मुक्त, भावों को किया जब,
खिल उठीं
अस्तित्व की कलियाँ
सुरभि चहुँ ओर फ़ैली,
मन विहँस गाने लगा मल्हार...
...फिर गूँजी फिजाएं
जब सरकता चाँद पूनम
छत चढ़ा,
तारों नें झिलमिल
दीप उत्सव में जलाए,
प्राण प्रिय नें
हाथ थामा,
सिहरते पल नें किया शृंगार...
..फिर गूँजी फिजाएं
बधिर साँकल,
बंद खिड़की
ख्वाब की - घुटती सिसकती,
ले कहीं से
अंजुरी भर
हौसले की रश्मियों को,
जब खुली, पा नभ तलक विस्तार...
..फिर गूँजी फिजाएं
Comment
बहुत सुंदर
कितना सुंदर गीत है। मन झूम उठा पढ़कर, आदरणीय सौरभ जी का हार्दिक आभार कि उन्होने लिंक साझा करके नवगीत पढ़ने और शिल्प पर हुई चर्चा का लाभ उठाने के लिए प्रेरित किया।इन दिनों मैं मुंबई से बाहर होने के कारण गीत पर नहीं आ सकी। आदरणीया प्राची जी आपको इस सुंदर शृंगार रस से परिपूर्ण गीत के लिए हार्दिक बधाई।
भाई शिज्जू जी,
आपसे पहला प्रश्न : क्या आप ग़ज़ल के अलावे अन्य विधाओं की रचनाओं पर अभ्यासरत हैं ? यदि हाँ, तो उनके प्रति आपका आग्रह क्या है ? आपने इसी मंच पर उन विधाओं से सम्बन्धित कितनी चर्चाओं या कितने संवादों में भाग लिया है ? क्या आप अन्य विधाओं के आयोजनों में मुखर रूप से भाग लेते हैं, भले ही एक पाठक के रूप में ? ऐसा इसलिये पूछ रहा हूँ कि यह मूलभूत विन्दु है किसी विधा के प्रति संवेदनशील होने का या उसपर आग्रही होने का. इसी तथ्य की एक और कड़ी है, कि इसी मंच पर कई ऐसे पाठकों-रचनाकारों के समूह बन गये हैं जो मात्र अपने लिहाज की विधाओं की रचनाओं पर ही आग्रही और संवादी दिखते हैं. अपनी मनपसंद विधाओं से इतर की प्रस्तुतियों पर या उनके आयोजनों में उनको पाठक के तौर पर भी भाग लेते हमने नहीं देखा है, अथवा, कम ही देखा है. आयोजन के अलावे प्रस्तुत हुई अन्य रचनाओं या प्रस्तुतियों पर हुआ भी तो मात्र खानापूर्ति करते हुए आगे बढ़ जाते हैं. यही इस जैसे मंच पर अनावश्यक वाहवाही को लगातार प्रश्रय मिलने का मूल कारण बनकर सामने आया है. यानि, कई कारणों में से एक मुख्य कारण यह भी. ऐसे व्यक्तिगत मंतव्यों के पीछे क्या या कितना सही है या कितना गलत है, यह बाद का विषय है, या, आगे का विषय है. लेकिन यह तो स्पष्ट कहूँगा कि कोई साहित्यकार अपने प्राम्भिक दौर में जितना जागरुक और सचेत रहे उसकी अपनी मनपसंद विधा के प्रति भी उसकी सकारात्मक दृष्टि बनती है.
आप इस मंच पर गीत या छंद पर हुए संवादों, परिचर्चाओं को पढ़ते हों, सम्बद्ध आयोजनों में टिप्पणियों के माध्यम से बने संवादों को गंभीरता से देखते हों तो मुझे कुछ नहीं कहना है. लेकिन आपने जिस तरह से प्रश्न उठाये हैं वह इसकी ताकीद नहीं करते. और तब आपका अचानक किसी विधा के मूल पर ही इस तरह से प्रश्न करना, वह भी किसी रचना के पोस्ट पर, भाईजी, बहुत उचित नहीं लगा मुझे. यहाँ, इस पोस्ट पर, किसी वधान से सम्बन्धित कई विन्दुओं में से कितनी बातें स्पष्ट हो पायेंगीं ?
जो रचनाकार इस मंच पर नवगीत विधा में कार्यरत हैं, या जो पाठक इस विधा में रुचि लेते हैं, उनको सुनिये-पढ़िये, टिप्पणियों के माध्यम से संवाद बनाइये ! वे आपको इस विधा के समस्त पहलुओं को न केवल जानते मिलेंगे, बल्कि आपको मालूम होगा कि उन्हें इस विधा की सीमाओं और स्वतंत्रता दोनों का भान है और वे उन्हें स्वीकार कर ही प्रयासरत हैं. छंद और गीतों की विधाएँ सनातनी होने से संयत हो चुकी हैं. आपकी ग़ज़ल की विधा की तरह ! (ऐसा इसलिये कहा कि आपको अक्सर ग़ज़ल पर ही कार्यरत होते देखा है हमने). छंदों और गीतों में भी मात्राओं और वर्णों का सम्यक निर्वहन होता है. यदि मैं कहूँ, कि छंदों के विधान में तो कई विन्दुओं पर ग़ज़ल की विधाओं से भी अधिक उन्नत वैज्ञानिकता है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
सादर
मै माफी चाहता हूँ सर लेकिन इस मंच पर जितनी चर्चायें ग़ज़ल पे हुई है किसी अन्य विधा में नही हुई है छंद विधान पर यहाँ जानकारों ने लेख पोस्ट की है और वहीं से मैंने आदरणीया डॉ प्राची जी के नवगीत पर लेख को मैंने अपने पास सुरक्षित भी रखा है लेकिन वहाँ भी मात्रा गणना और विन्यास पे जानकारी अधूरी है।
मसलन- //यदि मुखड़ा १६, १६ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी ८ या १६ की यति पर होनी चाहियें // लेकिन पंक्तियों में मात्रा क्रम क्या हो ये स्पष्ट नही है, मैं यदि ग़ज़ल का उदाहरण लूँ तो ग़ज़ल निश्चित बह्र पे कही जाती हैl सनातनी छंद में भी ऐसा ही होता है, लेकिन इस बिन्दु पर नवगीत में क्या नियम है इस पर पर्याप्त चर्चा नही हुई है इसलिये मैं यहाँ पूछ बैठाl मैं पुनः माफी चाहता हूँ
आदरणीय शिज्जू जी,
किसी चर्चा को इस तरह से बीच में ही पकड़ कर इतना मुखर प्रश्न करना कभी-कभी उन सभी को डरा देता है जो शिल्प पर गहन काम करते हुए चर्चा कर रहे हैं, कि, अगला कुछ भी उत्तर पाने पर अवश्य गलत अर्थ निकाल लेगा तथा कुछ ऐसा करेगा जो विधान से शर्तिया 'पच्छिम-पच्छिम' होगा.
इसका सटीक उदाहरण मुझे आजही मिला है. एक गंभीर सदस्य ने किसी छंदोत्सव आयोजन में मेरे किसी जानकार सदस्य के साथ छंद-विधान पर हुई चर्चा से मात्र कुछ अंश उठा कर उस छंद का पूरा विधान ही समझ लिया और उनने रचना कर डाली ! पूछने पर उन्होंने छंदोत्सव के आयोजन में हुये उसी संवाद का हवाला दिया .. जो कि तनिक ऐडवांस स्टेज का था. अब क्या कहा जाये ?!!
रचनाओं या छंदों की मात्रिकता लघु-गुरु के अलावे शब्द-संयोजन पर भी निर्भर करती है जो जानने के लिहाज से तनिक सा ऐडवांस स्टेज है. जैसे कि ग़ज़ल में अरुज़ जानने के ऐडवांस स्टेज में ज़िहाफ़ पर बात करना होता है.
नवगीत की विधा तो अबतक पारद सदृश है जो संयत और स्थिर होने में अभी कुछ और काल-खण्ड लेगी. किन्तु, गीत या छंद की मात्राओं के उठाने-गिराने पर मैं इतना ही पूछना चाहूँगा कि क्या आपने इस पोस्ट की अन्य टिप्पणियों को और मंच पर उपलब्ध छंद के अन्य आलेखों को देख जाने का कष्ट किया है ? .. :-)))
शुभ-शुभ
क्या मात्रा की गणना नवगीत में भी वैसे ही होती है जैसे ग़ज़ल में होती है यथा- तुम का वज्न गज़ल में 2 होता है और नवगीत में भी 11 न होकर 2 होता है ??? और मात्रा गिराने की छूट जो ग़ज़ल में मिलती है क्या वो नवगीत में भी मिलती है ???
नवगीत के शिल्प पर चर्चा आपको सार्थक लगी इस हेतु आपको हार्दिक धन्यवाद, भाई बृजेशजी.
मेरा प्रयास समुचित हुआ इसका संतोष है.
शुभ-शुभ
बहुत ही सुन्दर नवगीत! आपको हार्दिक बधाई!
इस गीत के बहाने शिल्प पर एक अच्छी चर्चा हुई है, जो सीखने वालों के लिए बहुत उपयोगी है.
सादर!
आदरणीय सौरभ जी
आपने जिस धैर्य से समझाया है पूरी तरह...तो गेयता क्यों बाधित रही है यह तो स्पष्ट होना ही था.आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है...उसमें गेयता बिलकुल निर्बाध है....और क्यों है ये भी बिलकुल स्पष्टतः समझ आ रहा है.
साथ ही मुझे अफ़सोस भी है कि ये सब तो मैं जानती थी.. फिर भी लिखते वक्त अनजाने ही नजरअंदाज हो गया... :((( जिसके लिए क्षमा क्षमा
मैं सुधार करती हूँ ..
पुनश्च आभार!
सादर.
//यदि शब्द समुच्चय के नज़रिए से सम के बाद सम और विषम के बाद विषम शब्दों को न रखा जाना कारण है ...तो आग्रह है एक बार पूरे बंद को २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ X3 में पढ़ें //
जय हो..
ऐसे ??!! ... :-))))
इस तरह के प्रयोग सर्वथा उचित हैं, लेकिन हम यह भी देखें कि पंक्ति कहाँ से प्रारम्भ होती है और किस शब्द समूह पर अंत होती है. ली गयी पंक्ति को जिस कारण मैंने इंगित किया है उसका कारण भी वही था, भले अनजाने में, जिस विन्यास के शब्द भार को आप साझा कर रही हैं.
मैं प्रत्येक पंक्ति के प्रारम्भ में गुरु लघु और फिर गुरु क् विन्यास के अनुसार स्वर साधता हुआ पढ़ता जा रहा था और लय बनती जा रही थी. अचानक वह पंक्ति आयी जिसे मैंने उद्धृत किया है..
तारों नें झिलमिल
दीप उत्सव में जलाए
और मैं तारों के रों को गिरा कर उसे लघु वर्ण में न समझ सका. फिर पूरी पंक्ति एक अतिरिक्त रुक्न लिये लगी !
कारण कि उससे पहले वाली पंक्ति २१२२ २१२२ २१२२ २१२ यानि चार रुक्न ऐसे समाप्त करती लगी मुझे. और यह एक संयत वर्णिक व्यवस्था है पंक्ति की. इधर आपने अंतिम रुक्न का एक गुरु दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में लगा कर उस दूसरी पंक्ति की व्यवस्था को ही गड्डमड्ड कर दिया है आपने. यानि तारों के बाद आने वाले ने को गिरा कर लघु वर्ण बनाया है आपने.
भाई, इससे गेयता तो भंग होनी ही थी. कोई पाठक पंक्ति प्रति पंक्ति ही पढ़ेगा, भले वह जहाँ और जैसे खत्म हो. न कि आपके रुक्न की व्यव्स्था के निर्धारण के अनुसार.
विश्वास है, आप समझ गयी होंगी कि रुक्न को कैसे निर्धारित करते हैं.
फिर, बधिर को मैं १ २ में बाधूँगा नकि २१ में. मुझे ब+धिर बोलना सहज लगता है. और, मेरे जैसे सोचने वाले अन्य ९९% लोग हैं. उन्हीं में आप भी हैं, आपने सुरभि को १ २ में ही बाँधा है . :-))))
यही हाल सिहरते पल का हाल है. यह १२२ २ में बँधेगा नकि २१२२ में जैसा कि आपने किया है.
अब इसी शैली में मेरी एक पुरानी रचना देखिये -
टीसता हर बार
खालीपन मिलेगा,
यार छोड़ो
क्या सुनोगे
दिल जलेगा... .
एक हसरत
की अमानत
थी कभी ये ज़िन्दग़ी भी
एक आशा
थी सुबह से
किन्तु ऊबी रौशनी ही
क्या पता था वो पहर कुछ यों ढलेगा.. .
तीन मुट्ठी रात गिन कर
ले लिय़ा दिन एक मुट्ठी
कुछ बने
के फेर में
जलती रही गीली अँगीठी
हो धुआँती आग
बोलो क्या बनेगा ?.. .
कहना न होगा कि मुखड़े को २१२२ के तीन रुक्नों और अंतरे को २१२२ के चार रुक्नों से बाँधा है. और कोई पंक्ति गड्डमड्ड शायद ही हुई है. सो गेयता सहज है.
एक बात और, रुक्न भले गीतिका के अनुसार या फ़ाइलातुन लिया गया हो परन्तु देखिये कि कहीं अन्यथा मात्रा गिराने का काम नहीं हुआ है. लघु के स्थान पर लघु ही है. कारक की विभक्तियों आदि जैसे कंजंक्शन की बात अलग है.
विश्वास है, मैं स्पष्ट कर पाया..
सादर
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