देश काल निमित्त की सीमाओं में जकड़े तुम
और तुम्हारे भीतर एक चिरमुक्त 'तुम'
-जिसे पहचानते हो तुम !
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा
एक अभिन्न को-
खामोश मन मंथन की गहराइयों में
चिंतन की सर्वोच्च ऊचाइंयों में
पराचेतन की दिव्यता में.....
पूर्णत्वाकांक्षी तुम के आवरण में आबद्ध 'तुम'
क्या पहचान भी पाओगे
अभिन्न उन्मुक्त अव्यक्त को-
एक सदेह व्यक्त प्रारूप में......?
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
उस 'तुम' नें जीना चाहा है सदा ...... बहुत सुंदर रचना बधाई स्वीकार करें ... आ0 प्राची जी
अपने ’स्व’ को बूझ लेने का प्रक्रम सनातन है. यह देही साधन मात्र है जिसकी संज्ञा ’मैं’ या ’तुम’ से इंगित होती रही है.
यदि श्री मद्भग्वद्गीता के अनुसार ’..अस्थिता जनकादयः’ को मानक माना जाय तो सांसारिक कर्म को अन्यथा समझने की भूल होगी ही नहीं. उच्च सचेतावस्था का अर्थ ही है कि एक हाथ से तात्विकबोध की पराकाष्टा का टटोलना हो तो दूसरे हाथ से सांसारिकता के गूढ़तम को साधना हो. कविता के मुख्य पात्र का ढंग ऐसा ही होने से मन आश्वस्त हुआ है.
शुभ-शुभ
रचना में सन्निहित कथ्य आपको पसंद आया ..आपकी आभारी हूँ आ० शिवराम सिंह जी
अचना के भावदशा सम्प्रेषण पर आश्वस्त करते आपके अनुमोदन के लिए सादर आभार आ० अरुण निगम जी
रचना के भावों पर आपके अनुमोदन के लिए आभार आ० जितेन्द्र जी
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
इस अभिव्यक्ति की भाव परिधि में कुछ पल ठहरने के लिए आपका धन्यवाद
सादर.
अभिव्यक्ति पर आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद प्रिय गीतिका जी
आदरणीय शरदिंदु जी
प्रस्तुति की भाव दशा को गहनता से महसूस करने का आपका प्रयास...नत करता है. बहुत बहुत धन्यवाद.
रचना को स्पष्ट करने के क्रम में और यही कहना चाहूंगी कि आबद्ध चिरमुक्त 'तुम' तो आनंदस्वरुप है...उसका सिसकना कैसा....वो तो बस स्थित है अपनी high vibrational frequencies में.....same vibrational frequencies की ओर प्रवृत्त होना तो प्रकृति का नियम ही है...क्या एक इकाई में निहित मुक्तिबोध को प्राप्त सत्ता वैसे ही किसी और इकाई में निहित उस अव्यक्त सत्ता को पहचान सकती है... यही इस रचना में निहित है.
सादर.
अभिव्यक्ति की भाव दशा पर आपके अनुमोदन के लिए आभारी हूँ आदरणीया अन्नपूर्ण बाजपेयी जी
आ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
रचना की अंतर्धारा आपको पसंद आयी..यह जानना सुखाकर है...आपका हृदय से आभार.
सादर.
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