बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
Neeraj Kumar 'Neer' जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब
Abhinav Arun जी, आपके इस स्नेह के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुजार हूँ।
विजय मिश्र जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
डॉ. अनुराग सैनी जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब
Dr Ashutosh Mishra जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब
Meena Pathak जी, बहुत बहुत शुक्रिया
आशीष नैथानी 'सलिल' जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब।
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब। आगे भी कोशिश जारी रहेगी।
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम---बहुत शानदार शेर बहुत समझदार है आपकी कलम!! बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर
आदरणीय धर्मेन्द्र जी वाह बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई हो आपको
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