गाँव-नगर में हुई मुनादी
हाकिम आज निवाले देंगे
सूख गयी आशा की खेती
घर-आँगन अँधियारा बोती
छप्पर से भी फूस झर रहा
द्वार खड़ी कुतिया है रोती
जिन आँखों की ज्योति गई है
उनको आज दियाले देंगे
सर्द हवाएँ देह खँगालें
तपन सूर्य की माँस जारती
गुदड़ी में लिपटी रातें भी
इस मन को बस आह बाँटती
आस भरे पसरे हाथों को
मस्जिद और शिवाले देंगे
चूल्हे हैं अब राख झाड़ते
बासन भी सब चमक रहे हैं
हरियाई सी एक लता है
फूल कहीं पर महक रहे हैं
मासूमों को पता नहीं है
वादे और हवाले देंगे
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय संदीप जी आपका हार्दिक आभार!
बृजेश जी......लाजवाब
बहुत सुंदर गीत लिखा ब्रिजेश जी .... गाँव की बारीकियाँ उभर कर आयी हैं हर अंतरे में .....बहुत सुन्दर प्रवाह में उत्तम शिल्प में ढला गाँव की विडम्बना को दर्शाता एक सार्थक गीत ...बहुत बहुत साधुवाद आपको ,,,
आदरणीय बृजेश भाई जी क्या कहूँ शब्द नहीं हूँ मौन हो गया हूँ गीत की सुन्दरता कथ्य शिल्प और प्रवाह को देखकर, वास्तविकता को जिस सुन्दरता से शब्दों के रूप में बांधा और बयां किया है दिल लूट लिया भाई आपने. हृदयतल से ढेरो बधाई स्वीकारें
क्या बात है बेहद खूबसूरत अंदाज में गीत रचा है आपने सीधे सीधे ह्रदय को बींधती है आपकी यह रचना
जय हो इस सच बयानी के लिए ह्रदय से बधाई
सादर
आदरणीय शिज्जु जी बहुत शुक्रिया!
आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय नादिर साहब, बहुत बहुत आभार!
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