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हमेशा राह में नदियों, बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते
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किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी इन सवालों के, कोई उत्तर नहीं होते
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कभी चलके, कभी तर के, जहाँ घूम लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते
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चला देते हैं झट खन्जर, नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते
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गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से बचकर
कभी भीड़ के तन पे ‘मुसाफिर’ सर नहीं होते
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घुला विष है दिमागों में, दिलों में भेडि़ये का खूं
वो तो हैं वासना के बुत, उनमें नर नहीं होते
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-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
रचना मौलिक और अप्रकाशित है
3 दिसम्बर 2013
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