बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
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सच है यही कि स्वर्ग न जाती हैं सीढ़ियाँ
मैं उम्र भर चढ़ा हूँ पर बाकी हैं सीढ़ियाँ
तन के चढ़ो तो पल में गिराती हैं सीढ़ियाँ
झुक लो जरा तो सर पे बिठाती हैं सीढ़ियाँ
चढ़ते समय जो सिर्फ़ गगन देखता रहे
जल्दी उसे जमीन पे लाती हैं सीढ़ियाँ
मत भूलिये इन्हें भले आदत हो लिफ़्ट की
लगने पे आग जान बचाती हैं सीढ़ियाँ
रहना अगर है होश में चढ़ना सँभाल के
हर पग पे एक पैग पिलाती हैं सीढ़ियाँ
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया Sanjay Mishra 'Habib' जी
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ सौरभ जी
बहुत बहुत शुक्रिया Abhinav Arun जी
वाह!! बहुत खूबसूरत ग़ज़ल... आ धर्मेन्द्र भाई जी सादर बधाई स्वीकारें....
सीढ़ियों को मरकज़ बना कर एक अच्छा प्रयोग हुआ है.
हार्दिक बधाई, आदरणीय धर्मेन्द्रजी.
तन के चढ़ो तो पल में गिराती हैं सीढ़ियाँ
झुक लो जरा तो सर पे बिठाती हैं सीढ़ियाँ
चढ़ते समय जो सिर्फ़ गगन देखता रहे
जल्दी उसे जमीन पे लाती हैं सीढ़ियाँ
.................वाह वाह आ. धर्मेन्द्र जी उम्दा ग़ज़ल ..सार्थक रचना सीख देती रचना के लिए ढेरों मुबारकबाद !!
बहुत बहुत धन्यवाद savitamishra जी
बहुत बहुत शुक्रिया अरुन शर्मा 'अनन्त' जी
बहुत बहुत धन्यवाद Meena Pathak जी
बहुत बहुत शुक्रिया Nilesh Shevgaonkar जी।
अरुज के अनुसार पर को प’ पढ़ने की छूट होती है। ऐसा बहुत सारे शायर पहले से करते आ रहे हैं।
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