''मिश्रा जी, बेटी का बाप दुनिया का सबसे लाचार इंसान होता है. आपको कोई कमी नहीं, थोड़ी कृपा करें, मेरा उद्धार कर दें. बेटी सबकी होती है.' कहते-कहते दिवाकर जी रूआंसे हो गए । मिश्रा जी का दिल पसीज गया ।
अगले वर्ष घटक द्वार पर आए तो दिवाकर जी कह रहे थे
''अजी लड़के में क्या गुण नहीं है, सरकारी नौकर है. ठीक है हमें कुछ नहीं चाहिए, पर स्टेटस भी तो मेनटेन करना है. हाथी हाथ से थोड़े ना ठेला जाता है. चलिए 18 लाख में आपके लिए कनसिडर कर देते हैं और बरात का खर्चा-पानी दे दीजिएगा, और क्या. बेटी आपकी है जैसे चाहे संवारें या एक जोड़ी कपड़े में विदा कर दें.. हमें कोई आपत्ति नहीं ''
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
राजेश 'मृदु'
Comment
सुन्दर लघु कथा है आ० राजेश जी
सादर शुभकामनाएं इस सुन्दर सार्थक प्रस्तुति पर
इस अच्छी लघु कथा के लिए आपको बधाई, आदरणीय राजेश जी।
आज की बिडम्बना का सही चित्रण
सुन्दर लघुकथा है ...
शुरुआत में ज़रा सा स्पष्टता चाहिए
न जाने यह स्वार्थ किस रूप में अपने पांव पसारे हुए है, आजकल तो सीधे-सीधे पढाई का खर्चा भी माँगा जा रहा है, साथ में बहु कम पढ़ी लिखी, गाँव की भी चलेगी ताकि घर में नोकरों की तरह काम करवा सकें, भाई ! दिवाकर जी ने ही तो बच्चे पालकर बड़े किये है, बाकि सबके बच्चो ने तो अवतार लिया है, बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय राजेश जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें
वाह वाह!! चित भी इनकी और पट भी इनकी...अफसोस कि युग बदलने के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया
शब्दों को सुंदरता से उकेरने के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश जी
इ तो लोलुपता कि पराकाष्ठा है भाई जी, सुन्दर लघुकथा हार्दिक बधाई आपको। ......... सादर
कन्या के पिता के रूप में घिघियाना और उसी व्यक्ति का वर के पिता के रूप में दहाड़ना आम बात है। इधर जितना हो सके बचाओ और मौका आने पर उधर से जितना हो सके कमाओ। राजेश भाई लघु कथा की बधाई ॥
आदरणीय राजेश भाई , दहेज प्रथा पर बहुत सुन्दर लघु कथा कही है ॥ ये बीमारी खत्म नही हुई है , लेने का ढंग बदल गया है ॥ आपको बहुत बधाई ॥
मृदु जी
बहुत अच्छा कंसीडरेशन है i आपको शुभ कामनाये i
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