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धूप उतर आयी
झरोखे से झांक
आज़ सुबह मेरे कमरे मे
जब धूप उतर आयी
बढ़ गई थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
यह धूप आज़ महंगी है, पर –
कल तक आवारा थी
शांति मुझे देती अब
गंगा की धारा सी ।
कैसे बताऊँ क्या है ?
जल्द फिसल जाती है
तन ठिठुर जाता
हर छाँव सिहर जाती है ।
अब तक अनदेखी है
तेरी गोराई !
ऐसे मे अनजानी
याद तेरी आयी ।
आज़ मेरे कमरे मे –
धीरे से
धूप उतर आयी
बढ़ गयी थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
- मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Priyanka singh on December 18, 2013 at 10:16pm

बहुत सुन्दर सर ..... सर बधाई...

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 18, 2013 at 6:41pm

आदरणीय महोदय

आपकी भावनाओ का सादर सम्मान  i कल्पना में नेह कभी वृद्ध नहीं होता i

Comment by savitamishra on December 18, 2013 at 11:49am

बहुत सुंदर

Comment by Shyam Narain Verma on December 18, 2013 at 10:00am
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.
Comment by coontee mukerji on December 17, 2013 at 10:54pm

बहुत सुंदर रचना इस पौष की ठिठुरन मैं उष्णता प्रदान करती हुई.सादर

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