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यह मोरपंखी मन !
न जाने क्यूँ प्रिये पागल –
हुआ जाता तुम्हारी याद मे यह मोरपंखी मन !
पहाड़ों पर कभी भटके
ढलानों पर कभी घूमे
कभी यह चीड़ के वन से –
घटाओं को बढ़े चूमे ।
यहाँ ठंडी हवाओं मे बढा जाता बहुत सिहरन
न जाने क्यूँ प्रिये पागल अरे यह मोरपंखी मन !
नदी , निर्झर , पहाड़ों पर
भ्रमण करता हुआ जाता
फिज़ाओं मे भटकना अब प्रिये !
पलभर नहीं भाता ।
तुम्हारे बिन हुआ जाता बड़ा सूना मेरा उपवन -
न जाने क्यूँ प्रिये ! पागल अरे यह मोरपंखी मन !
--- मौलिक एवं अप्रकाशित -

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Comment by S. C. Brahmachari on December 29, 2013 at 5:23pm
श्रद्धेय ब्रजेश नीरज जी,
रचना की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार !
Comment by S. C. Brahmachari on December 29, 2013 at 3:42pm
भाई सौरभ पाण्डेय जी,
आपकी प्रतिक्रिया मन को गुदगुदाने लगे हैं,
नए भाव फिर मन मे आने लगे हैं, हार्दिक आभार !
Comment by बृजेश नीरज on December 27, 2013 at 10:13am

वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2013 at 2:12am

आदरणीय ब्रह्मचारीजी, आपकी कविता के माध्यम से आपकी भावप्रिया से न केवल मुलाकात हुई बल्कि यह भी पुनर्प्रतिस्थापित हुआ कि कोई पवित्र मन विह्वल भावुकता में टेर लगाता है तो उसके शब्द अपने आप प्रवाह में आ जाते हैं !
आपके इस गहन भाव को मैं हृदय से सम्मान देता हूँ.

शिल्पगत सफल प्रयास के लिए विशेष बधाई.. अलग से !
सादर

Comment by S. C. Brahmachari on December 26, 2013 at 10:56pm

बहन महिमा श्री जी,

अभिव्यक्ति की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार !

Comment by S. C. Brahmachari on December 26, 2013 at 10:51pm

भाई जितेंद्र गीत जी,

रचना की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार !

Comment by S. C. Brahmachari on December 26, 2013 at 10:48pm

श्री सत्यनारायन सिंह जी            

रचना की प्रशंसा रोमांचित कर गयी ! हार्दिक आभार स्वीकारें ...... !

Comment by MAHIMA SHREE on December 26, 2013 at 7:26pm

तुम्हारे बिन हुआ जाता बड़ा सूना मेरा उपवन -
न जाने क्यूँ प्रिये ! पागल अरे यह मोरपंखी मन !.... बेहद सुंदर अभिव्यक्ति .... हार्दिक बधाई आदरणीय सर .. सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 25, 2013 at 10:19pm

विरह की वेदना  का बहुत ही सुंदर भाव से चित्रण करती रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय एस.ब्रह्मचारी जी

Comment by Satyanarayan Singh on December 25, 2013 at 7:19pm

आ. ब्रम्हचारी जी सादर, सर्वप्रथम मोरपंखी मन यह संबोधन ही मन को भा गया, प्रस्तुत रचना में प्रेम अनुरागी मोरपंखी मन की विरह दशा का सुन्दर मनोहारी वर्णन आपने किया हैं आदरणीय हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

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