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आँधी से उजड़ा शजर लगता है
वो बुलन्द अब भी मगर लगता है
सिर्फ किरदार नये हैं उसके
इक पुराना वो समर लगता है
बेकरानी में कहीं गुम शायद
इक बियाबान में घर लगता है
वो कहीं शिद्दते- तूफ़ाँ तो नही
रास्ता छोड़ अगर लगता है
पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो
तेरे हाथों में हुनर लगता है
काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है
आपके दम से जहीं है ये कलम
आपका दिल पे असर लगता है
समर = किस्सा या कहानी
बेकरानी = असीम विस्तार
जहीं(जहीन) = दक्ष
मुजस्सम = साकार
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया भाई जितेन्द्र जी
आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ सर रचनाओं पर आपकी उपस्थिति सदैव उत्साहित करती है
काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है.....वाह! क्या बात है
शानदार गजल आदरणीय शिज्जू जी, बधाई स्वीकारें
पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो
तेरे हाथों में हुनर लगता है
इस शेर के गिर्द पूरी ग़ज़ल अच्छी लगी.
बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ
तारीफ के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया भाई बैद्यनाथ जी
आदरणीय गोपाल नारायण सर हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया, माफी चाहता हूँ शब्दार्थ लिखना भूल गया
आदरणीय गिरिराज सर हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आपका आभार आदरणीया कुन्ती जी
आपका बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय वीनस जी
पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो
तेरे हाथों में हुनर लगता है...गज़ब का ख्याल
आपके दम से जहीं है ये कलम
आपका दिल पे असर लगता है...माशाल्लाह ...वाह बहुत खूब शिज्जू साहब
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