2122 1122 22/112
आँधी से उजड़ा शजर लगता है
वो बुलन्द अब भी मगर लगता है
सिर्फ किरदार नये हैं उसके
इक पुराना वो समर लगता है
बेकरानी में कहीं गुम शायद
इक बियाबान में घर लगता है
वो कहीं शिद्दते- तूफ़ाँ तो नही
रास्ता छोड़ अगर लगता है
पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो
तेरे हाथों में हुनर लगता है
काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है
आपके दम से जहीं है ये कलम
आपका दिल पे असर लगता है
समर = किस्सा या कहानी
बेकरानी = असीम विस्तार
जहीं(जहीन) = दक्ष
मुजस्सम = साकार
-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
मित्र शिज्जू भाई
बेकरानी का शब्दार्थ मुझे नहीं पता i पर ग़ज़ल बेहतरीन है i उर्दू के कठिन अप्रचलित शब्दों का मायने बता देने से हम ग़ज़ल को और बेहतर समझ सकते थे i आपको बहुत बहुत बधाई हो i
आदरणीय शिज्जू भाई , बहुत शानदार गज़ल कही है , पूरी गज़ल , हर शेर क़ाबिले दाद हैं ॥एक मुकम्मल गज़ल के लिये आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ॥
काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है...........क्या बात है.
सुन्दर तरही ग़ज़ल कही है भाई जी हार्दिक आभार
जनाब नादिर भाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गणेश जी आपका आभार
//वो2 बु1 लन्2 दब2 भी1 म1 गर2 लग2 ता2 है2// यहाँ मैंने अलिफ़ वस्ल का प्रयोग किया है
बेकरानी = व्यापकता या असीम विस्तार
माफ कीजियेगा शब्दों के अर्थ देना भूल गया
पत्थरों को जो मुजस्सम करे वो
तेरे हाथों में हुनर लगता है
काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है
आदरणीय शिज्जु जी ये दोनों शेर मुझे पसंद आए ... बहुत बधाई आपको
//वो बुलन्द अब भी मगर लगता है// मिसरा उलझा हुआ लग रहा है, एक बार पुनः विचार करें |
बेकरानी = ?
//काँच का दिल है ज़बाँ पे पत्थर
बच के जाऊँ मुझे डर लगता है// शेर बहुत ही सुन्दर हुआ है, झे =१ गिराकर पढ़ना मुश्किल लग रहा है |
बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर |
भाई रामशिरोमणि जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
भाई रमेश जी आपका आभार
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