इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी
ओस की बुँदकी चमकी
नए साल की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी
रही ठिठुरती
सांकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में
छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी
दर-दर भटक रही
पगडंडी
रेत-कणों में
राह ढूँढती
बरगद की
हर झुकी डाल भी
जाने किसकी
बाँट जोहती
एक उदासी ओढे थी जो
नदिया की वह धारा हुमकी
.
- बृजेश नीरज
मौलिक व अप्रकाशित
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सांकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में
छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी
और
दर-दर भटक रही
पगडंडी
रेत-कणों में
राह ढूँढती......
बहुत सुन्दर रचना आदरणीय बृजेश जी
आपकी इस रचना से गुजरना मुझे भला लगा, भाई बृजेशजी. कुछ बिम्ब तो सीधे वातावरण से लिये गये है और सार्थक चित्र प्रस्तुत करते हैं. इसके लिए आपकी निरंतरता और गहन दृष्टि को हार्दिक धन्यवाद कह रहा हूँ. बहुत खूब !
लेकिन एक और तथ्य जो सबसे अधिक ध्यानाकृष्ट कर रहा है वह है आपका सायास तुकान्तता के साथ मनमानापन. और ये आप भी जानते हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ. इसीकारण मैं यह कह भी पा रहा हूँ. रचना पर अच्छी और मनभावन बातें आपसे नहीं करूँगा. अन्यथा, मेरे कहने का कोई अर्थ नहीं होगा. कारण, उससे आपको न कोई लाभ होगा और न ही आप संतुष्ट होंगे, मुझे यह भी पता है.
इधर नवगीत के क्षेत्र से सम्बन्धित कई-कई पुरोधाओं और गणमान्यों से मेरी सार्थक बातचीत हुई है, फोन पर भी तथा सापेक्ष भी. सबके कहे से जो औसत निकल कर सामने आया है वह यही है कि हम विधा के मूलभूत तत्त्वों के साथ खिलवाड़ न करें, चाहे नवगीत की उन्मुक्तता और उसका अपेक्षित बोहेमियन व्यवहार हमें कितना ही क्यों न लुभाये. आदरणीय नचिकेताजी ने तो मेरी विधाजन्य बातों को इतनी दूर तक और इतना ठोस समर्थन दिया है कि फोन पर भी और पटना में उनके आवास पर भी हुई बातचीत में कई बार मैं उनकी ही बातों को कहता हुआ दिखने लगा. और, यह मेरे लिए भी सुखद आश्चर्य था. कहना न होगा, उनका भी यही कहना है कि गीत या कविताओं की मूलभूत अवधारणा से मनमानापन क्षणिक चमत्कार अवश्य पैदा कर दे, परन्तु, उसका कुल-प्रभाव आगे चल कर सदा उथला ही हुआ करता है.
आदरणीय गुलाब सिंहजी आदरणीय नचिकेता जी की तरह मुखर तो नहीं थे लेकिन अपने आवास पर अपने नवगीत-संग्रह ’बाँस-वन और बाँसुरी’ को मुझे सहर्ष देते समय और बाद में फोन पर भी यह अवश्य कहा कि कई जगह शिल्पगत विसंगतियाँ दिखेंगी, उसे देख लीजियेगा, आप अवश्य साझा कीजियेगा. बृजेशजी, मैं अवाक भी था और निश्शब्द भी ! एक वटवृक्ष मुझ लतिका से अपनी संवेदना ज़ाहिर कर रहा था !
लेकिन यह विधाओं के प्रति हम सभी का आग्रह ही है जो उन जैसे नवगीत के पुरोधा को इस तरह से नम्र कर रहा था. क्या गेय रचनाओं यानि गीतों या नवगीतों की मूलभूत अस्मिता को बचाना रचनाधर्म का आग्रह नहीं होना चाहिये ? अवश्य ही हाँ.
रचनाकर्म के क्रम में घनीभूत भाव विधाजन्य नहीं होते, अलबत्ता उन भावों का संप्रेषण अनुशासनबद्ध होता है. अर्थात किसी प्रस्तुतीकरण के कुछ वैधानिक लिहाज होते हैं. उसी कारण कोई विधा अन्य विशिष्ट विधा-भिज्ञों के बीच वैधानिक सम्मान पाती है.
यदि बीसवीं सदी के पचास के दशक से लगातार व्यवहृत होते चले जाने के बावज़ूद आजतक यह कहा जा रहा है कि नवगीत को हिन्दी पद्य-साहित्य में कोई सार्थक स्थान नहीं मिला है तो उसके कई मुख्य कारणों में से ये दो कारण सबसे प्रमुख प्रतीत होते हैं, एक, नवगीत के रचनाकारों द्वारा अपनी वैधानिक कमियों को अपने वाग्जाल के आवरण में छुपाना, दो, गीतों के मूलभूत विधानों के विरुद्ध अपनायी गयी अनावश्यक ज़िद को अपनी श्रेष्ठता की तरह लगातार घोषित करते रहना.
उन कतिपय रचनाकारों की ऐसी कोई ज़िद जितना शीघ्र समाप्त हो उतना ही अच्छा.
हम क्यों न अपनी ऊर्जा नवगीतों के अभिनव बिम्बों और सार्थक एवं स्पष्ट प्रस्तुतीकरण के लिए बचा रखें ! नवगीत तो गीतों के नियमों का पालन करते हुए, अभिनव बिम्बों के साथ सरलता से लिखे जा सकते हैं यह अब दूर की कौड़ी नहीं है. कमसेकम ओबीओ पर तो नहीं ही है.
शुभ-शुभ
आदरणीया अन्नपूर्णा जी आपका हार्दिक आभार!
खूबसूरत नवगीत , सुंदर भावों सुंदर शिल्प के साथ गढ़ी गई आपकी रचना वाकई दिल को छु जाती है , बहुत बधाई आपको इस सुंदर रचना की प्रस्तुति हेतु ।
आदरणीय ब्रह्मचारी जी आपके स्नेह के लिए हार्दिक आभार!
आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!
बहुत सुंदर मनमोहक रचना, हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी
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