नदी मर गयी,
बहुत तड़पने के बाद.
घाव मवादी था.
आती है अब महक.
अब शहर में गिद्ध नहीं आते.
कुत्ते लगाते हैं दौड़
उसकी मृत देह पर
फिर भाग खड़े होते हैं.
नदी जवान थी, खूबसूरत.
वह थी चिर यौवना.
भर देती थी जीवन से.
खेलती थी , करती थी अठखेलियाँ,
छूकर कभी इस किनारे को
कभी उस किनारे को.
उछालती जल, करती कल्लोल,
भिंगोती तट के पीपल को.
पुरबाई में पीपल का पेड़
झूम कर करता था अभिषेक.
करता अपने प्रिय पातों का अर्पण
प्रेम के भेट स्वरुप ..
दाह से पहले , ठंढे शीतल जल में
जब मृत शरीर को कराते थे स्नान,
आत्मा तृप्त हो उठती थी .
चहचहा उठता था घने पीपल पर
बैठा पक्षियों का समूह ,
मानो गवाही देता था
स्वर्ग की सीढ़ी के उतरने का.
जीवन तभी तक है
जब तक गति है.
नदी किनारे रहने वाला हंसों का जोड़ा
उड़ गया ....
नये ठौर की तलाश में ..
वहां अब उग आयीं है
कुछ झुग्गियां
जहाँ कुत्ते नहीं रहते
रहते है आदमी
जिन्हें मंजूर होता है
नरक ,
दो वक्त की रोटियों के बदले
शहर बड़ा हो गया
और नदी मर गयी ..
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह! बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
वाह नीरज भाई बेहद सुन्दर मार्मिक अभिव्यक्ति बहुत बहुत बधाई आपको
हार्दिक आभार आदरणीय जीतेंद्र गीत जी आपकी टिप्पणी से उत्साह बढ़ा है .
कवि राज बुन्देली साहब प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार .
आपका आभार श्याम नारायण वर्मा जी
बहुत ही मार्मिक व् एक गहरे सच का सजीव चित्रण करती रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज जी
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,,,,,इस सुन्दर ,,,मार्मिक रचना हेतु बहुत बहुत बधाई आपको,,,,,,,,
बढ़िया रचना पर हार्दिक बधाइयाँ |
आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब.
बहुत बहुत आभार आदरणीया वंदना जी ..
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