आज गहरे अंतस में
न जाने कैसी
अजीब सी
छाया बन रही है
लगातार जारी है
समझने की नाकाम कोशिश ....
मगर छाया नहीं सुलझती
दौड़ रहा हूँ ...
बीते हुये कल के
हर एक के जानिब को
शायद वो हो ...
नहीं वो नहीं है ...
अच्छा वो हो सकता है
मगर कहाँ भागूँ
कितना भागूँ ...
बहुत दूर आ चुका हूँ
वापस जाना मुमकीन नहीं हैं
अंतस में
छाया और गहरी
होती जा रही है
अजीब सा लगता है
जब कोई अपना हो
और अपना न भी हो
छाया तो छाया ही है
मगर है तो किसी
अपने की
है न ....
लगाव सा हो गया है
मगर पहचान नहीं पा रहा
कोई - कोई उलझन अच्छी
लगती है ...
सुलझे बगैर ...
उलझन ... उलझन ही है ....
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 वंदना जी, आ0 सौरभ पांडे जी, आ0 बृजेश नीरज जी, आ0 बैद्यनाथ सारथी जी, आ0 अरुण शर्मा जी, आ0 जितेंद्र गीत जी, आ0 अन्नपुरना जी, आ0 मुकर्जी जी, आ0 गिरिराज भण्डारी जी आप सभी का बहुत बहुत आभार ....
बिलकुल ठीक कहा आपने -
कोई - कोई उलझन अच्छी
लगती है ...
कभी कभी उलझनें बहुत कुछ सिखा जाती हैं अत: देर तक साथ रहती हैं तो प्रिय भी हो जाती हैं
बधाइयाँ.. बहुत खूब भाईजी..
अच्छी रचना है! आपको हार्दिक बधाई!
ज़िन्दगी की पहेलियों को सुलझाने में लगा मन !...अच्छी रचना ..पठनीय रचना ...सादर
आदरणीय आमोद भाई जी बेहद सुन्दर रचना बहुत बहुत बधाई आपको
छाया तो छाया ही है
मगर है तो किसी
अपने की
है न ....
लगाव सा हो गया है
मगर पहचान नहीं पा रहा
कोई - कोई उलझन अच्छी
लगती है ...
सुलझे बगैर ...
उलझन ... उलझन ही है ...........अपनों के बीच ,अंतर का विश्लेषण बहुत प्रभावी है, बधाई स्वीकारें आदरणीय आमोद जी
अच्छी रचना , बधाई ।
मांसिक उधेड़बुन की बहुत बहुत अभिव्यक्ति ........आपको बहुत बधाई.सादर.
आदरणीय आमोद भाई , सुन्दर भाव अभिव्यक्ति के लिये बधाइयाँ ॥
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