गज़ब हैं रंग जीबन के गजब किस्से लगा करते
जबानी जब कदम चूमे बचपन छूट जाता है
बंगला ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में
सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है
जबानी के नशें में लोग क्या क्या ना किया करते
ढलते ही जबानी के बुढ़ापा टूट जाता है
समय के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है
समय को गर नहीं समझे समय फिर रूठ जाता है
जियो ऐसे कि औरों को भी जीने का मजा आये
मदन ,जीबन क्या ,बुलबुला है, आखिर फुट जाता है
मदन मोहन सक्सेना
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जीवन की क्रमिक अवस्थाओं के अस्थायित्व पर सुन्दर अभिव्यक्ति..
यह शायद आपकी पहली ही रचना है जिसे मैं पढ़ रही हूँ.... बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
बंगला ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में
सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है...............बहुत सुन्दर
उस पर से आपने टिप्पणियों को एप्रुव करने की बंदिश लगा रखी है. लाहौलविलाकुव्वत !
आप की लिखित भाषा में बंगाल की पृष्ठभूमि का प्रभाव दिख रहा है. शुभेच्छाएँ भाईजी.
आदरणीय मदन मोहन भाई , बहुत सुन्दर भाव पूरँ रचना के लिये बधाई !! पर किस शिल्प मे आपने रचना की है मै समझ नही पाया ॥
अच्छी रचना है , बधाई आपको ।
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