(एक)
तुम क्या चुकाओगे
मेरी मेहनत की कीमत
मेरी जवानी
मेरे सपने
मेरी उम्मीदें
सब-कुछ तो दफ्न है
तुम्हारी इमारतों में।
(दो)
जब चलती हैं
झुलसा देने वाली गर्म हवाएँ
कवच बन जातीं है
यही सूरज की किरणें
हमारे लिए ।
मुसलधार बारिश
जब हमारे बदन को छूती है
फिर से खिल उठता है
हमारा तन
ऊर्जावान हो जाता है
जिस्म का रोम- रोम ।
हमारे पसीने की गंध
ला देती है गर्मी
पिघला देती है
कड़कड़ाती ठंड को ।
बदलता है मौसम
हमारे लिए
हम नहीं बदलते
मौसम के साथ ।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी हौसला अफजाई एवं मार्गदर्शन के लिए शुक्रिया ....
आदरणीया
कुन्ती जी ,मीना जी बहुत शुक्रिया आप दोनों का
आपने कोशिश को सराहा ...
तुम क्या चुकाओगे मेरी मेहनत की कीमत मेरी जवानी मेरे सपने मेरी उम्मीदें सब-कुछ तो दफ्न है तुम्हारी इमारतों में। wah bahut achchi rchna hai sir ji ,,,,,,,,,,,,,,,
बहुत सुंदर...हार्दिक बधाई.
बहुत सुन्दर ,,, सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय
एक सार्थक कोशिश के लिए हृदय से बधाइयाँ स्वीकारें नादिर भाईजी.
प्रयासरत रहें. भावों के अनुसार शब्द स्वयं गहन होते जायेंगे.
शुभ-शुभ
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