2122 2122 2122
फिर हुई जीने की इच्छा आज मन में
फिर बुलाया आज कोई है सपन में
फड़फड़ाने फिर लगा कोई परों को
फिर उड़ेगा वो किसी नीले गगन में
फिर से पीड़ा मीठी सी कुछ हो रही है
शीत भी मिलने लगी है अब जलन में
कोपलें फिर फूटती सी दिख रहीं हैं
क्या बहारें आ रहीं हैं फिर चमन में ?
बाल सुलझे छू , हवायें आ रहीं हैं
फिर महक सी आ रही है अब पवन में
फिर हृदय में हूक है , कोई चुभन है
फिर मज़ा आने लगा है इस चुभन में
फिर से आँखें टिक गई है शून्य मे अब
कुछ नये सपने बसा के फिर नयन में
फिर से तेरी सोच मे डूबा हुआ हूँ
तू ही तू छाया मेरे चिंतन-मनन में
फिर मुझे समझा रहे हैं मित्र मेरे ,
हाथ जल जाये न फिर ऐसे हवन में
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अरुण श्रीवास्तव जी , ग़ज़ल को आपका अनुमोदन मिला , सराहना मिली बहुत खुशी हुई , आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय अरुण अनंत भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल को आपका आशीर्वाद मिला , बहुत खुशी हुई , आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय आशीष भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय अजय भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीया प्रियंका जी , उत्साह वर्धन करने के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरनीया कल्पना जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया ॥
बहुत बढ़िया गज़ल हुई है सर !
फड़फड़ाने फिर लगा कोई परों को
फिर उड़ेगा वो किसी नीले गगन में
फिर से आँखें टिक गई है शून्य मे अब
कुछ नये सपने बसा के फिर नयन में ............ ये अश'आर विशेष पसंद आए !
वाह वाह आदरणीय गिरिराज सर एक एक अशआर सुन्दरता से पिरोया है आपने लाजवाब ग़ज़ल के लिए ढेरों दिली दाद कुबूल फरमाएं.
आपकी यह गज़ल भी बहुत अच्छी लगी। बधाई, मेरे भाई।
सादर,
विजय निकोर
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