अनकही सी अनसुनी सी इक ज़ुरूरी बात थी ।
कह के भी कह ना सके कोई अधूरी बात थी ।
बोलने कि हद पे था प्यार का शैलाब पर ,
ना बोलने की ज़िद पे भी इक गुरुरी बात थी ।
कोशिशें तो की बहुत इज़हारे उल्फत की मगर ,
लफ़्ज़ों में ना आ सकी दिल की पूरी बात थी ।
एकटक देखा उन्हें तो देखता ही रह गया ,
चाँद से चेहरे पे उनके कोहिनूरी बात थी ।
प्यार की खामोशियों में रंग भरने के लिए ,
उन लबों की लालियों में एक सिन्दूरी बात थी ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज 'प्रेम '
Comment
बहुत कुछ सँभालने का प्रयास हुआ है. इसके लिए बधाई.
वैसे इस ग़ज़ल के अब भी कई मिसरो पर ध्यान जाने से रह गया है. और, आप प्रयुक्त बह्र की मात्रा को भी अपनी प्रस्तुति के साथ लिख दिया करें जैसा कि इसी मंच के अन्य समृद्ध ग़ज़लकार करते हैं. इससे विधा की इज़्ज़त रह जाती है.
जैसे, इस ग़ज़ल को आपने २१२२ २१२२ २१२२ २१२ के वज़्न में बाँधने की कोशिश की है.
गज़ल में खयाल अच्छे लगे, बधाई।
जिंदाबाद साहब ..क्या अशआर हुए हैं ..बहुत उम्दा
अनकही सी अनसुनी सी इक ज़ुरूरी बात थी ।
कह के भी कह ना सके कोई अधूरी बात थी ।...लाजवाब
आदरणीय नीरज जी . मैं तो बस इतना कहूँगा अआप्की ग़ज़ल में भी गजब दिलकश हँसी सी बात थी .आपसे पहल बार मुखातिव हुआ ..वाकई कमाल के ग़ज़ल ..ढेरों बधाई कवूल करें ..सादर
सुन्दर प्रयास है भाई ... लगे रहिये ... मंज़िल दूर नहीं
आदरणीय नीरज प्रेम भाई , बहुत सुन्दर रचना की है , आपको बधाइयाँ !! लेकिन ग़ज़ल के शिल्प के लिहाज़ से कमियाँ हैं ॥
बहुत उम्दा
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