कैसा है यह जीवन मेरा !
रोटी की खातिर मैं भटकूँ
नदियों नदियों , नाले नाले ।
अधर सूखते सूरत जल गयी
पड़े पाँव मे मेरे छाले ।
लक्ष्य कभी क्या मिल पाएगा , मिल पाएगा रैन बसेरा ?
कैसा है यह जीवन मेरा !
मैंने तो सोचा था यारो
भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन
जाने कैसे राह बदल गयी
बैठा सोचे आज व्यथित मन !
मेरा मन बनजारा बनकर , नित दिन अपना बदले डेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा !
पर्वत-पर्वत क्यूँ भागूँ मै
किसने मुझको भटकाया है
करवट लेते रात गुजरती
यह कैसा मौसम आया है !
कभी घिरा मै तनहाई से , कभी घटाओं ने आ घेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा ?
.
--- मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत सुंदर रचना है भाई साहब इसे बार बार पढ़ने को जी चाहता है. सादर
ब्रह्मचारी जी, इस अच्छी रचना के लिये अनेकों साधुवाद. आपको इस मंच पर फिर सक्रिय होते देख प्रसन्नता हो रही है. सादर.
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