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अनकही बातें...(नवगीत) - डॉ० प्राची

अनकही बातें धड़कतीं

मुस्कुराती

पल रही हैं.

 

थाम यादों की उँगलियाँ

स्वप्न जो

गुपचुप सजाये

शब्द आँखों में उफनते

क्या हुआ जो

खुल न पाये

 

भाव लहरें

तलहटी में

व्यक्त हो अविरल बही हैं.

 

रच गए जब

स्वप्न पट पर

नेह गाथा चित चितेरे

रंग फागुन से चुरा कर

कल्पनाओं में बिखेरे...

 

श्वास में

घुल कर बहीं जो

वो हवाएँ निस्पृही हैं.

 

खनखनाती खिलखिलाहट

प्रीत की

अनमोल पूँजी

व्यक्त हो

बन चीख-चिल्ली

द्वार जब-तब तोड़ गूँजी

 

किन्तु इस दहलीज पर

कब ये मिलन-पल

आग्रही हैं ?

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Comment

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Comment by रमेश कुमार चौहान on February 14, 2014 at 10:52pm

आदरणीय दीदी इस नवगीत पर नमन सह बधाई

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 14, 2014 at 6:56pm

आदरनीया  प्राची जी .

....जो रचना कुछ हट के होती है , गुणवत्ता की उत्तम श्रेणी में आती है,निश्चित रूप से दिल में गहरे उतर जाती है

..रचना पूरी तरह से तब समझ आती है जब पाठक की आवृति और रचनाकार की आवृति बराबर हो जाए .

मुझसे अगर पूछा जाता की ये रचना आपको क्यों अच्छी लगी तो शायद मैं पूरी तरह से समझा तो नहीं पाऊँ लेकिन बार बार लगता है यह रचना अद्भुत है

..आदरणीय सौरभ सर की प्रतिक्रिया पढ़कर हमेशा की तरह इस बार भी कुछ नया सीखने को मिला ..नवगीतों की माला की इस बेहद शानदार कड़ी के रूप में आपकी इस रचना पर तहे दिल बधाई के साथ

..सादर 

Comment by Vindu Babu on February 11, 2014 at 1:24pm

  आदरणीया प्राची दी,

सच में बहुत ही अच्छा लगा आपका यह नवगीत...बार-बार पढ़ने को बाध्य हो रही हूँ

सहज और गेय...सुनने को मन मचल उठा।

इसे संजो लिया है बार-बार पढ़ने के लिए.

वैसे तो लगभग सभी सीखने की प्रक्रिया मे ही रहते हैं,लेकिन मैं अति प्रारम्भिक स्थिति में हूँ.इसलिए ये मेरे लिए और महत्वपूर्ण है।

हार्दिक बधाई आपको इस सुंदर नवगीत के लिए.

सादर

Comment by ram shiromani pathak on February 8, 2014 at 12:35pm

रच गए जब

स्वप्न पट पर

नेह गाथा चित चितेरे

रंग फागुन से चुरा कर

कल्पनाओं में बिखेरे...

 

श्वास में

घुल कर बहीं जो

वो हवाएँ निस्पृही हैं.

 

खनखनाती खिलखिलाहट

प्रीत की

अनमोल पूँजी

व्यक्त हो

बन चीख-चिल्ली

द्वार जब-तब तोड़ गूँजी

 

किन्तु इस दहलीज पर

कब ये मिलन-पल

आग्रही हैं ?///

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया प्राची जी, मन मुग्ध ऐसी रचना पढ़ाकर ,पढता ही रहा। ।
बहुत बहुत बधाई आपको /////सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:48pm

आदरणीय सौरभ जी 

आपको यह नवगीत संग्रहणीय जान पडा और आपने इसे मेरे सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना यह जानना किसी पारितोषिक से कम नहीं है आदरणीय. आपके पाठक द्वारा इस गीत के भाव व् बिम्बों को नवगीत के तौर पर सार्थक स्वीकार किया जाना मुझे नवगीत लेखन के प्रति प्रोत्साहित कर रहा है..

 

//व्यक्तिगत अनुभूतियों के अलावे सामाजिक और समष्टि की भावनाओं को नवगीत अधिक मुखर करते हैं//गीत और नवगीत में यह एक बहुत ही महीन किन्तु अत्यंत सबल अंतर है.//...जी आदरणीय 

यह ध्यान में रखते हुए अवश्य ही कई कई सामाजिक पक्षों पर लिखने का प्रयास अवश्य ही करूंगी..

मार्गदर्शन के लिए सादर धन्यवाद 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:42pm

आपको नवगीत सार्थक लगा यह जानन बहुत संतुष्टिदायक है आदरणीया कल्पना रामानी जी.

इस नवगीत की अंतिम पंक्ति में ही निहित सार को जान आपने लेखन की गहनता को मान दिया है 

आपका सादर धन्यवाद आदरणीया 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:39pm

रचना के भावों पर आपकी स्नेहिल शुभकामनाओं के लिए सादर धन्यवाद आदरणीया मोहिनी चंद्रा जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:37pm

नवगीत पसंद कर उत्साहवर्धक अनुमोदन के लिए सादर धन्यवाद आ० मीना पाठक जी , आ० कुंती मुखर्जी जी. आ० गिरिराज भंडारी जी , आ० जीतेंद्र जी, आ० विजय जी , आ० राजेश कुमारी जी, आ० अन्नपूर्णा बाजपेयी जी , आ० सावित्री राठौर जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:33pm

//नवगीत के बाद भी गेयता कहीं बाधित नहीं है //

निर्बाध गेयता और लयात्मकता तो नवगीत के प्राण होते हैं आ० अखिलेश जी..

अन्तर्निहित भाव और गेता आपको रुचे ...आपकी आभारी हूँ 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 7:31pm

नवगीत की सराहना के लिए धन्यवाद नीरज मिश्रा जी 

कृपया ध्यान दे...

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