वो पलकों की चिलमन …
वो पलकों की चिलमन उठा के गिराना
वो आँचल के कोने को मुंह में दबाना
ज़हन में है ज़िंदा वो मंज़र मिलन का
भला कैसे भूलूं मैं उसका मनाना
मुहब्बत की रूदाद क्यूँ अश्कों में भीगी
क्यूँ होता है मुहब्बत का दुश्मन ज़माना
गुजरती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना
रंज होता है क्या ये न जाने थे अब तक
हिज्र में हम तेरी अश्कों को भूले छुपाना
अपनी ख़ल्वत से रहूँ क्यों भला मैं ख़फ़ा
आ गया रास याद बनके उनका सताना
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर गज़ल ... बधाई आदरणीय सुशील जी | सादर
आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी ग़ज़ल पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
आदरणीय कुन्ती मुख़र्जी जी ग़ज़ल पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार
गुजराती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना..........बहुत खूब
हार्दिक बधाई आदरणीय शुशील जी
सुंदर गज़ल के लिये हार्दिक बधाई.सादर
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